महेशवाणी आ नचारी

महेशवाणी आ नचारी साहित्य जन मंथन

1.एत जप-तप हम की लागि कयलहु / विद्यापति

एत जप-तप हम की लागि कयलहु,
कथि लय कयल नित दान।
हमर धिया के इहो वर होयताह,
आब नहिं रहत परान।
नहिं छनि हर कें माय-बाप,
नहिं छनि सोदर भाय।
मोर धिया जओं ससुर जयती,
बइसती ककरा लग जाय।
घास काटि लऔती बसहा च्रौरती,
कुटती भांग–धथूर।
एको पल गौरी बैसहु न पौती,
रहती ठाढि हजूर।
भनहि विद्यापति सुनु हे मनाइनि,
दिढ़ करू अपन गेआन।
तीन लोक केर एहो छथि ठाकुर
गौरा देवी जान।

शिव को वर के रूप में देख कर माता को यह चिंता सता रही है कि ससुराल में पार्वती किसके साथ रहेगी –न सास है, न ससुर , कैसे उसका निर्वाह होगा ? सारा जप –तप उसका निरर्थक हो गया…यदि यही दिन देखना था तो …देखें माँ का हाल

2.हम नहि आजु रहब अहि आँगन / विद्यापति

हम नहि आजु रहब अहि आँगन
जं बुढ होइत जमाय, गे माई.
एक त बैरी भेल बिध बिधाता
दोसर धिया केर बाप।
तेसरे बैरी भेल नारद बाभन।
जे बुढ अनल जमाय। गे माइ॥

पहिलुक बाजन डामरू तोड़ब
दोसर तोड़ब रुण्डमाल।
बड़द हाँकि बरिआत बैलायब
धियालय जायब पराय गे माइ।

धोती लोटा पतरा पोथी
सेहो सब लेबनि छिनाय।
जँ किछु बजताह नारद बाभन
दाढ़ी धय घिसियाब, गे माइ।

भनइ विद्यापति सुनु हे मनाइनि
दृढ करू अपन गेआन।
सुभ सुभ कय सिरी गौरी बियाहु
गौरी हर एक समान, गे माइ॥

3.हिमाचल किछुओ ने केलैन्ह बिचारी / विद्यापति

हिमाचल किछुओ ने केलैन्ह बिचारी।
नारद बभनमा सs केलैन्ह पुछारी
बर बूढा लयला भिखारी।
हिमाचल…

ओहि बुढ़वा के बारी नय झारी
पर्वत के ऊपर घरारी…
हिमाचल किछुओ ने केलैन्ह बिचारी।

भनहि विद्यापति सुनु हे मनाइन
इहो थिका भंगिया भिखारी
हिमाचल किछुओ नय केलैन्ह बिचारी।

आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागल हे / विद्यापति

आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागल हे।
तोहे सिव धरु नट भेस कि डमरू बजाबह हे। ।
तोहे गौरी कहैछह नाचय हमें कोना नाचब हे॥
चारि सोच मोहि होए कौन बिधि बाँचब हे॥
अमिअ चुमिअ भूमि खसत बघम्बर जागत हे॥
होएत बघम्बर बाघ बसहा धरि खायत हे॥
सिरसँ ससरत साँप पुहुमि लोटायत हे॥
कातिक पोसल मजूर सेहो धरि खायत हे॥
जटासँ छिलकत गंगा भूमि भरि पाटत हे॥
होएत सहस मुखी धार समेटलो नहीं जाएत हे॥
मुंडमाल टुटि खसत, मसानी जागत हे॥
तोहें गौरी जएबह पड़ाए नाच के देखत हे॥
भनहि विद्यापति गाओल गाबि सुनाओल हे॥
राखल गौरी केर मान चारु बचाओल हे।

अर्थ:
उपरोक्त पदों में गौरी के माध्यम से कवि कोकिल विद्यापति कहते हैं कि हे शिव! आज एक महान व्रत का मुहूर्त है और मुझे सुख का अनुभव हो रहा है। हे प्रभु आप नटराज का भेष धारण कर डमरू बजावें। गौरी के इस आग्रह को सुन शिव जी कहते हैं …हे गौरी आप हमें नाचने के लिए कह रही हैं पर मैं कैसे नाचूं? कारण, नृत्य से उत्पन्न संभावित चार खतरों से मैं चिंतित हूँ जिससे बचना मुश्किल है। पहला – नृत्य के क्रम में चाँद से अमृत की बूँदें टपकेंगी जिससे मेरा यह बाघम्बर सजीव अर्थात जीवित हो जायेगा और मेरे बसहा को खा जायेगा। दूसरा – नृत्य के क्रम में ही मेरे जटा जूट में लिपटे हुए सांप नीचे की तरफ खिसक कर आ जाएँगे और और पृथ्वी पर विचरण करने लगेंगे, जिसके फलस्वरूप कार्तिक के पाले हुए मयूर उन्हें मार डालेंगे । तीसरा – जटा से निकलकर गंगा भी बाहर आ जाएँगी और सहस्त्र मुखी हो बहने लगेंगी, जिसे संभालना बहुत मुश्किल होगा । चौथा – मुंड का माला भी टूट कर बिखर जाएगा और वे सारे जीवित हो उठेंगे और आप यहाँ से भाग जाएँगी । यदि आप ही भाग जाएँगी तो फिर नृत्य का क्या प्रयोजन, कौन देखेगा? इस गीत को गाकर विद्यापति कहते हैं औघर दानी शंकर पार्वती के मान की रक्षा करते हुए नृत्य भी करते हैं और संभावित खतरा से भी बचा लिया।

रुसि चलली भवानी तेजि महेस / विद्यापति

रुसि चलली भवानी तेजि महेस
कर धय कार्तिक कोर गनेस

तोहे गउरी जनु नैहर जाह
त्रिशुल बघम्बर बेचि बरु खाह

त्रिशुल बघम्बर रहओ बरपाय
हमे दुःख काटब नैहर जाए

देखि अयलहुं गउरी, नैहर तोर
सब कां पहिरन बाकल डोर

जनु उकटी सिव, नैहर मोर
नाँगट सओं भल बाकल-डोर

भनइ विद्यापति सुनिअ महेस
नीलकंठ भए हरिअ कलेश

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कोकिल विद्यापति गौरी के रूठ कर जाने का वर्णन करते हुए कहते हैं:
गौरी रूठ कर शिव जी को छोड़ विदा होती हैं. कार्तिक का वे हाथ पकड़ लेती हैं और गणेश को गोद में ले लेती हैं. शिव जी आग्रह करते हुए कहते हैं – हे गौरी, आप नैहर (मायके) न जाएँ . चाहे उन्हें त्रिशूल और बाघम्बर बेचकर ही क्यों न खाना पड़े. यह सुन गौरी कहती हैं – यह त्रिशूल और बाघम्बर आपके पास ही रहे. मैं तो नैहर जाऊँगी ही, चाहे दुःख ही क्यों न काटना पड़े . तब शिव जी कहते हैं – हे गौरी मैं आपका नैहर भी देख आया हूँ. वहाँ लोग क्या पहनते हैं ….सभी बल्कल यानि पेड़ का छाल आदि पहनते हैं. यह सुन गौरी गुस्सा जाती हैं और कहती हैं – हे शिव मेरे नैहर को मत उकटिए (शिकायत) . ऐसे नंगा रहने से तो अच्छा है लोग पेड़ का छाल तो पहनते हैं. विद्यापति कहते हैं – हे शिव, सुनिए! नीलकंठ बन जाएँ और गौरी के सारे क्लेश का हरण कर लें.

कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ / विद्यापति

कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ।
दुखहि जनम भेल दुखहि गमाओल
सुख सपनहु नहि भेल हे भोला।
एहि भव सागर थाह कतहु नहि
भैरव धरु करुआर ;हे भोलानाथ।
भन विद्यापति मोर भोलानाथ गति
देहु अभय बर मोहि, हे भोलानाथ।

गौरा तोर अंगना / विद्यापति

गौरा तोर अंगना।
बर अजगुत देखल तोर अंगना।

एक दिस बाघ सिंह करे हुलना।
दोसर बरद छैन्ह सेहो बौना॥
हे गौरा तोर…

कार्तिक गणपति दुई चेंगना।
एक चढथि मोर एक मुसना॥
हे गौर तोर…

पैंच उधार माँगे गेलौं अंगना।
सम्पति मध्य देखल भांग घोटना॥
हे गौरा तोर…

खेती न पथारि शिव गुजर कोना।
मंगनी के आस छैन्ह बरसों दिना॥
हे गौरा तोर ।

भनहि विद्यापति सुनु उगना।
दरिद्र हरन करू धएल सरना॥

हे हर मन द करहुँ प्रतिपाल / विद्यापति

हे हर मन द करहुँ प्रतिपाल,
सब बिधि बन्धलहुँ माया जाल।
हे हर मन।

सब दिन रहलहुँ अनके आस,
अब हम जायब केकरा पास।
हे हर मन।

बीतल बयस तीन पल मोरा,
धयल शरण शिव मापन तोरा।
हे हर मन

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *