मेरा वेतन

मेरा वेतन साहित्य जन मंथन

मेरा वेतन ऐसे रानी
जैसे गरम तवे पे पानी

एक कसैली कैंटीन से
थकन उदासी का नाता है
वेतन के दिन सा ही निश्चित
पहला बिल उसका आता है
हर उधार की रीत उम्र सी
जो पाई है सो लौटानी

दफ्तर से घर तक है फैले
कर्जदाताओं के गर्म तकाजे
ओछी फटी हुई चादर में
एक ढकु तो दूजी लाजे
कर्जा लेकर क़र्ज़ चुकाना
अंगारों से आग भुजानी

फीस,ड्रेस,कॉपिया,किताबें
आंगन में आवाजें अनगिन
जरूरतों से बोझिल उगता
जरूरतों में ढल जाता दिन
अस्पताल के किसी वार्ड सी
घर में सारी उम्र बितानी

अभी यह कविता अधूरी है

ताराप्रकाश जोशी

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