आधुनिक युग में समय अधिकता से अधिक तेज चल रही है । आज के युग में हर कोई जल्द-से-जल्द आगे जाना चाहता है । समाज के बारे में सोचने व समझने के लिए किसी के पास समय नहीं है । लेकिन किसी विषय पर परिहास या टिप्पणी करने में अपने आप को महान मानने वाले व्यक्तियों का भी कमी नहीं है । क्या अच्छा है ? क्या बुरा है ? कोई नहीं सोचता क्योंकि आज की दुनिया में स्वार्थी स्वाभाव व्यक्ति अधिक देखा जाता है । आइए एक कहानी से रूबरू होते हैं ।
अमीरों का शहर अमीर बाजार । बड़ी-बड़ी इमारतें को आप देखकर आसानी से पता लगा सकते हैं कि यहाँ कैसे लोग रहते होंगे । हर किसी के आवास के नीचे एक-से-बड़कर-एक गाँड़ियाँ खड़ी रहती है । यहाँ अमर बाबू का परिवार भी रहता है । समाज में उनका बड़ा मान-सम्मान है । वे कई आनाथ आश्रमों को बीच-बीच में हर प्रकार का सहयोग पहुँचाने की कोशिश करते हैं । उनकी पत्नी अमीरा और बेटी आँचल । परिवार में हमेशा कलहल लगा रहता था । अमर बाबू अपनी पत्नी से तंग आ चुके थे । घर से ज्यादा वे ऑफीस में रहना पसंद करते थे । एक बार दोनों में काफी बहस हुई । इससे नाराज होकर अमीरा मायके चली गई । ऐसे में चार-पाँच महीने बीत गये । अमिरा के चले जाने के बाद अमर बाबू प्रायः दुखी ही रहते थे । पत्नी और बेटी से दूर रहना उनके लिए आंतरिक पीड़ा थी । अमिरा को लाने के लिए एक-दो बार ससूराल भी गये । लेकिन अमिरा अपनी जिद्द में डटी रही । घर आने से साफ साफ इन्कार कर देती थी ।
रविवार का दिन था । शाम को श्यामबाबू ने एक पार्टी रखी थी । सभी व्यापारी मित्र अपने-अपने पत्नियों के साथ आए हुए थे । सिवाय अमर बाबू को छोड़कर । बजह, मित्रों को पता था । दूसरे दिन मित्रों ने उन्हें मधुभवन जाने के लिए कहा । वे पूछे- क्यों ? मित्रों का जवाब था – बाहर से ग्राहक आए है । व्यापर के सिल-सिले में उनसे मिलना है । कल शाम को रूम नं-111 में पहुँच जाना । ठीक है, कल शाम को चला जाऊँगा । यह कह कर अमर बाबू घर चले गये ।
अमीर बाजार के ठीक सामने मजदूरों का बस्ती है । जहाँ 40-50 परिवार झोपड़ी बनाये हुए अपने सपने को सजाते हैं । उस गरीब मजदूर बस्ती में अलिभा अपनी बहन और भाई के साथ रहती थी । एक साल पहले अलिभा की माँ चल बसी । तब से सारी जिम्मेदारी अलिभा पर आ गयी । वह इधर-उधर काम कर के घर चला लेती थी । उसका भाई बी. ए अंतिम वर्ष में पढ़ रहा था और बहन 12वीं कक्षा में थी । अलिभा पहले से तय कर चुकी थी कि चाहे जो भी हो भाई-बहन को काबिल बनाएगी । ताकि इस संघर्ष भरी जिदंगी से मुक्ति मिले ।
एक दिन रोहन ने कहा- दीदी, मुझे 2200 रुपये चाहिए । वार्षिक परीक्षा के लिए फ़ीस जमा करना है । ठीक है कल लेना । अलिभा ने कहा । छोटी बहन पहले से ही फ़ीस के लिए 1245 रुपये माँग चुकी थी ।
अलिभा बैठे-बैठे सोच रही थी कि पैसे कहाँ से आएँगे । जहाँ-जहाँ काम करती थी, अनसे पहले से ही पैसा ले चुकी थी । कहाँ जाए । पैसों की जुगाड़ कैसे करेगी, यह सब बातें उसके मानस पटल पर बार-बार दस्तक दे रही थी । बहुत कोशिश की पर पैसों का जुगाड़ न हो सका । वह निराश होकर एक पेड़ के नीचे बैठी गई । एक बात जो कलम से छूट रही थी । वह है-अलिभा की खूबसूरती । वह गरीब झोपड़ी में रहती थी । मगर रंग, रूप से अप्सरा लगती थी । इस सच को कोई झूठला नहीं सकता । अचानक मधुवन भवन का मालिक(दलाल)की नजर अलिभा पर पड़ी । सुंदरता ने मालिक को उसकी ओर खींचा । पास आते ही उसने कहा- आप यहाँ अकेली क्या कर रही हैं ?
अलिभा ने कहा- आप कौन हैं
मैं मधुवन भवन का मालिक हूँ ।
तो मैं क्या करू ।
आप जैसी लड़कियों को मैं काम देता हूँ । आप चाहे तो मेरे पास काम कर सकती हैं ।
करना क्या होगा । सोचकर अलिभा बोली ।
बस, ग्राहकों को खुश करना है । मालिक ने कहा ।
नहीं समझी ।
मतलब, बड़े-बड़े लोग हमारे भवन में आते हैं, एक दो दिन रहते हैं । उनका देखभाल करना ।
अलिभा भोली-भाली लड़की थी । बातों को ठीक से समझ नहीं पायी । उसे पैसों की शक्त जरूरत थी । उसने यह शर्त रखी कि उसे कल 5000 रुपये चाहिए । मालिक पैसा देने के लिए राजी हो गया और भवन का पता देकर चला गया ।
सोमवार का दिन था । सुबह-सुबह अलिभा पूजा-पाठ करके भवन की ओर बढ़ी । पता पूछते-पूछते अंत में वह मधुवन भवन पहुँच गयी । मालिक ने साधारण काम-काज के तौर-तरिके बता दिया । उसे मधुवन भवन के कपड़े पहनने के लिए दिया गया । जो वहाँ के काम करने वाली लड़कियाँ पहनती थी । कपड़े पाश्चात्य सभ्यता को प्रदर्शित कर रही थी । उस दिन दो-चार ग्राहकों को रूम एलाटमेंट करा कर अलिभ पैसा लेकर चली गयी । जाने से पहले मालिक ने कहा- कल शाम से लेकर सुबह तक तुम्हारी ड्यूटी है । जी मालिक । अलिभ ने कहा ।
अलिभा की आर्थिक समस्या तो दूर हो गयी । पर उसे क्या पता था कि उसके साथ आगे क्या होनेवाला है । क्या हुआ… यही सोच रहे है न, आइए आगे चलते हैं ।
शाम को अमर बाबू मधुवन भवन के रूम नं 111 में पहुँचे । वहाँ का नौकर ने कहा-साहब, आप फ्रेस हो जाइए, वे आती होगी । वे नौकर की बात को नहीं समझ पाए ।
अलिभा को बुलाया गया । मालिक ने कहा- आज रूम नं-111 में एक बड़ी कंपनी के मालिक आए हुए हैं । उन्हें आज अपने इन कोमल तन से खुश करना है ।
आप क्या कह रहे हैं ।
सीधे-सीधे मालिक ने कहा- आज तुझे उनके साथ रात गुजारना होगा ।
मैं ये सब नहीं करती ।
तुझे करना होगा ।
नहीं करूँगी और मुझे तुम्हारी नौकरी भी नहीं चाहिए ।
तो मेरा 5000 वापस करों और चलते बनो ।
अभी नहीं है ।
मुझे पैसा दे या मैं जो कह रहा हूँ तू कर ।
आखिरकार मालिक ने असे मजबूर कर ही दिया । उसके पास और कोई रास्ता न था । वह इधर-उधर का काम छोड़ चुकी थी । लौटाने के लिए पैसे नहीं थे । भाई की पढ़ाई पूरी नहीं हुई थी । घर में कमानेवाला कोई और न था । इन सारी दुविधाओं से छूटकारा पाने के लिए अपने आप को उस अनजान पुरुष का उपभोग्य वस्तु बनने के लिए वह तैयार हो गयी । अलिभा की सहमी हुई कदम रूम नं-111 की ओर बढ़ने लगी । वह अंदर गयी और मशीनी बिजली जो बुझी हुई थी वह रोशनी से भर गई । अमर बाबू अलिभा को बैठने को कहा । वह चुप-चाप बैठ गयी । उसकी अंतर मन कांप रही थी । तिलांजली की अंतिम चरण तक अलिभा पहुँच गयी थी । अच्छा, आपका स्किम क्या है… अमर बाबू ने पूछा ।
क्या…चौककर अलिभा बोली । इतने में ही बाहर से कोई दरबाज़ा खटखटाया । दरबाज़ा खोलकर देखा तो बाहर पुलिस खड़ी थी । वैश्या काम करने के आरोप में अन्य लोगों के साथ-साथ इन दोनों को भी गिरफ्तार कर लिया गया । अलिभा और अमर बाबू अपने आप को निर्दोश साबित करना चाहा । पर वहाँ के मालिक ने पुलिस को यह वयान दे चुका था कि- यहाँ केवल देह का व्यापार होता है । अमर बाबू के मित्रों को पता चला और वे किसी तरह उन्हें मुक्त करवा दिया । अमर बाबू अपने मित्रों से नाराज होकर घर चले गये । अलिभा जेल के अंधकार कोठरी में फफक-फफक कर रो रही थी । बार-बार पुलिस से निवेदन कर रही थी कि मैं ऐसी लड़की नहीं हूँ । मुझे छोड़ दीजिए, घर जाने दीजिए । पर उसकी वेदना को महसूस करने के लिए वहाँ कोई न था ।
सुबह-सुबह अख़बार में ख़बर आई- मधुवन भवन से पाँच देह व्यापारी लड़कियों के साथ मालिक गिरफ्त । यह ख़बर अलिभा के भाई-बहन को भी पता चला । पर वे एक बार भी अपनी बड़ी बहन से मिलने नहीं गये । रोज की तरह अमर बाबू अख़बार पढ़ा, जिसमें अलिभा को वेश्या में गणना कर दी गयी थी । वे पहले अलिभा के बारे में जानकारी ली और 10 दिन तक अथक परिश्रम के बाद अलिभा के साथ-साथ अन्य लड़कियों को भी जेल से मुक्त करवा दिया । साथ ही साथ कंपनी में नौकरी दी । अलिभा को रिसेप्शन डेस्क के पद दिया गया । कंपनी में आनेवाले हर महमानों का स्वागत करना तथा उनका सहयोग करना अलिभा के काम थी । इस सेवा में लगभग दो साल बीत गये । कंपनी के कर्मचारी हो या वहाँ पर आनेवाले मेहमान सबकी जुबान पर अलिभा की प्रशंसा ही होती थी । एक दिन एक बड़ी कंपनी के मालिक अलिभा के व्यवहार से काफी प्रभावित हुए । उन्हेंने अमर बाबू के जरिये शादी का प्रस्ताव रखा । अलिभा भी राजी हो गयी । कुछ दिनों के बाद उनकी शादी हो गयी । कन्यादान अमर बाबू के हाथो हुआ । शादी के दो महीने हुए नहीं थे कि अलिभा के पति को एक विदेशी कंपनी से कंनट्राक्ट मिला और वह अपने पति के साथ विदेश चली गयी ।
अमर बाबू के घर में अब शांति लौट आयी थी । अमीरा बदल चुकी थी । अमर बाबू भी अपनी पत्नी और बेटी के साथ खुश थे । एक साल के बाद अलिभा का एक पत्र अमर बाबू के पास पहुँचा । पत्र ऐसा था-
अमर जी,
आपका चरण स्पर्श करती हूँ । इस बुझते हुए दीप को अपने अलिभा दीप बना दिया । आम को कोटी-कोटी नमन । जिदंगी की आखरी चरण में पहुँच गयी थी । किसी के सामने मुँह दिखाने के लायक नहीं थी । चारों ओर से बदनामी का चादर मेरे शरीर को ढक चुका था । जेल के काजल की कोठरी में मेरा दम घुट रहा था । जनता का सेवक पुलिस हमेशा दो कदम आगे थी । हर दिन मुझे वेश्या के नये नये नामों से पुकारा करते थे । मैं विनती पर विनती करती रही- मुझे छोड़ दो, मैं ऐसी लड़की नहीं हूँ । पर कोई कानून, कोई समाज यहाँ तक की मेरे भाई-बहन भी साथ छोड़ दिया । कभी-कभी महसूस करती हूँ कि आज का समाज केवल अमीरों और सत्ताधारियों का है । आम जनता का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है । मधुवन भवन का मालिक मुझसे वादा कर कर गया था कि तुझे छुड़वाने जरूर आऊँगा । पर मेरे भवन को इस जवानी से तुझे महकाना होगा । सच कहूँ तो पुलिस वालों के अत्याचार सहन नहीं हो रही थी । आप मुझे नहीं छुड़वाते तो शायद आज में किसी का दिल बहला रही होती । एक उपभोग की वस्तु बनने वाली थी की आपने मुझे नयी जिदंगी दी । समाज में सम्मान, प्रतिष्ठा सब कुछ मिला । अगर मैं यहाँ हूँ तो केवल आपके लिए । मेरी भावनाओं को अगर स्याही का रूप दे पा रही हूँ, तो इसमें आप ही मेरे प्रेरणा स्त्रोत हैं । इसके आगे मेरी कृतज्ञता का कुछ मोल नहीं है । समाज में अगर आप जैसे सत् पुरुष अवतरित होते रहेंगे तो कोई लड़की वेश्या या अनाथ नहीं होगी । न जाने कितनी लड़कियाँ इस तरह के वेश्या का शीकार हो जाती है । कोई लड़की शौक से इस राह को नहीं चुनती । कुछ मजबूर हो जाती हैं तो कुछ को मजबूर कर दिया जाता है । कहीं-कहीं हमारी कानून व्यवस्था भी अजीब है । देहजीवी लड़कियों को पकड़कर मीडिया के सामने नायक बन जाता है । यह भी जानने की कोशिश नहीं की जाती कि वह लड़की इस पथ को क्यों चुना…क्या मजबूरी थी…क्यों…क्यों…अगर कोई इस पथ पर चल पड़ी है तो हमारा फर्ज बनता है कि उसकी मजबूरी को समझे और उसकी समस्या का हल करें, उसे सही मार्ग दिखाये । जेल में रखना और अख़बार में हाइलाइट करना ।यह समस्या का हल नहीं है । सभी लोग इस विषय को जब गहराई से समझ जाएँगे तब वेश्या शब्द के लिए कोई जगह नहीं रहेगा ।
मैं यहाँ समाज कल्याण के कार्य में अनवरत लगी रहती हूँ । यह सब आपकी कृपा है । यह जीवन आपका देन है, मैं हमेशा आपका आभारी रहूँगी । पुनः आपको कोटी-कोटी नमन ।
आपकी सेवीका
अलिभा
पत्र पढ़कर अमर बाबू के आँखों में आँसू भर आये । पर यह आँसू प्रसन्नता की थी ।
सत्य नारायण घिबेला (हिन्दी शिक्षक)
ओडिशा आदर्श विद्यालय
Nice story I read it all and this story gets me an immotional.