अंबेडकरवादी दर्शन, विविध आंदोलन – अस्मिता के संदर्भ में

अंबेडकरवादी दर्शन, विविध आंदोलन - अस्मिता के संदर्भ में साहित्य जन मंथन

‘अस्मिता विमर्श’ साहित्य और चिंतन में भले ही आधुनिक युग की देन प्रतीत होता है, लेकिन इतिहास के पन्नों में यह प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष रूप से मानव सभ्यता के इतिहास से जुड़ा हुआ है। जब से मानव की सभ्यता – संस्कृति है , तभी से उसकी अस्मिता अलिखित रूप में उपस्थित है। उसका एक इतिहास रहा है जो अधिकार, वजूद, पहचान, अस्तित्व, गरिमा, न्याय आदि के विभिन्न आयामों में सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, नैसर्गिक, जैविक, धर्म, जाती-प्रजाति, भाषा इत्यादि रूपों में अबद्ध रहकर जीवित रहा है।
विश्व इतिहास में पूरी की पूरी छठी शताब्दी ईसा पूर्व धर्म सुधार और मानव धर्म की स्थापना का काल था। यह सदी भारतीय इतिहास और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण है। यही वह काल है, जब भारत में ‘जैन’ और ‘बौद्ध’ जैसे दो मानवतावादी धर्मों का उदय हुआ जिसने न केवल धर्म की बल्कि पारंपरिक समाजों की भी जडे़ हिला दी। बुद्ध ने न केवल पुरोहितवाद और यज्ञ – हिंसा का विरोध किया बल्कि जातिप्रथा को भी कुचला दिया। भारत में ‘जाति’ ही सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना का निर्धारक व नियंत्रक है। अत: बौद्ध धर्म भारत में जातिप्रथा के खिलाफ पहली ऐतिहासिक क्रांति थी । जिसका प्रभाव आज सबसे अधिक है। अंबेडकर आदि विद्वानों और आज के दलितों में बौद्ध धर्म के प्रति जो ऐसी श्रद्धा और प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है, वह अनायास नहीं है उसका कारण यही जाति-वर्ण विरोध और मानवीय समानता का भाव है। इसी मानवीय समानता पर अंबेडकरवादी दर्शन खड़ा है। यह मानवीय समानता का आंदोलन अर्थात अस्मिता का आंदोलन बुद्ध से मध्यकाल में कबीर से होते हुए जोतिराव फुले , पेरियार और डॅा.अंबेडकर तक चला तथा इसे दलित संगठन आगे ले जाने में प्रयासरत है । स्त्री को शिक्षा अधिकार दिलवाने और छुआछूत जैसे अमानवीय कर्म को अपराध घोषित करवाने का श्रेय इन्हीं महापुरुषों को जाता है। जोतिराव फुले ने पूरी ईमानदारी और निष्ठा से स्त्री और दलितों की लड़ाई लड़ी , उन्हें सामाजिक , सांस्कृतिक और राजनीतिक गुलामी से मुक्त कराने का प्रयास किया । डॅा•अंबेडकर ने भी समाज, संस्कृति और राजनीति की यही लड़ाई लड़ी थी। किन्तु उनकी यह लड़ाई अधिक धारदार, तार्किक और वैज्ञानिक थी । उनके सामने अस्मिता का प्रश्न ही प्रमुख था क्योंकि उन्हें स्वयं इस अमानवीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ा था । स्कूल में छुआछूत और जातिजनित अपमानों का जिक्र करते हुए अंबेडकर लिखते हैं-
“स्कूल में मराठा जाति की एक स्त्री नौकरी करती थी। वह अशिक्षित थी लेकिन वह छुआछूत मानती थी। मुझे छूने से बचती थी । मुझे याद है कि, एक दिन मुझे बहुत प्यास लगी। मुझे नल नहीं छूने दिया जाता था। मैंने मास्टर जी से कहा कि मुझे पानी चाहिए। उन्होंने चपरासी को आवाज़ देकर नल खोलने को कहा। उसने नल खोला , तब मैंने पानी पिया। जिस दिन वह नहीं आता था, उस दिन मुझे प्यासा ही रहना पड़ता था, घर जाकर ही मेरी प्यास बुझती थी।” [1] स्वयं को जानने और समाज के साथ अपने संबंधों की परख से ‘अस्मिता’ की निर्मिति होती है । इसी से आत्मसम्मान, गरिमा, समता, स्वतंत्रता, बंधुता, न्याय आदि भावनाओं का सृजन होता है और अस्मिता विमर्श की अवधारणा व्यापकता और वैचारिकी को स्पष्ट करती है। अस्मिता विमर्श मानव मुक्ति की प्रक्रिया से जुड़ा है। मानव मुक्ति अर्थात मानव की दासता , गुलामी, पराधीनता, अधीनता, दासीपन, नौकरपन , वंचना आदि से मानव की मुक्ति। जीवन मूल्यों की प्राप्ति के लिए किये गये संघर्ष , चिंतन व दर्शन की प्रक्रिया तथा उसकी वैचारिकता से अस्मिता विमर्श की अवधारणा अपना स्वरूप , दिशा स्थापित करती है। डॅा•अंबेडकर का मानव मुक्ति चिंतन सभी प्रकार की गुलामी से मुक्ति है। इसी लिए डॅा•अंबेडकर कहते है –
” मानसिक स्वतंत्रता ही वास्तविक स्वतंत्रता है। एक व्यक्ति जिसका मस्तिष्क स्वतंत्र नहीं है, वह भले बेड़ियों में न हो लेकिन गुलाम है । मस्तिष्क की स्वतंत्रता ही किसी के अस्तित्व का प्रमाण है और मानसिक विकास ही मनुष्य के अस्तित्व का अंतिम उद्देश्य होना चाहिए ।”
डॅा अंबेडकर ने जितने आंदोलन चलाये उनके मूल में अस्मिता ही दृष्टिगोचर होती है। जैसे वे ‘महाड सत्याग्रह‘ के संबंध में संबोधित करते हुए कहते हैं –
“हम इस सत्याग्रह को इसलिए नहीं कर रहे हैं कि हम यह मानते हैं कि इस तालाब के कुछ अलग गुण हैं बल्कि इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि हमें नागरिक और मानव होने के कारण अपने स्वभाविक अधिकार चाहिए।” [2]
और वे आगे कहते हैं –
“चावदार तालाब का पानी जब हमने नहीं पिया था, तब भी हम लोग मरे नहीं थे और पानी पी लेने से अमर नहीं हो जाएंगे । हम यहाँ पानी पीने नहीं आये हैं बल्कि यह सिद्ध करने आये हैं कि , दूसरों की तरह हम भी इंसान है।” [3]


वे हिन्दू समाज में परिवर्तन करना चाहते थे। इसीलिए कहते हैं- ‘हम अंधकार युग में रचे गये शास्त्रों और स्मृतियों के शासन को मानने से इंकार करते हैं,’ और इस प्रतीक स्वरूप उन्होंने ‘मनुस्मृति’ की प्रति जलायी थी। डॅा• अंबेडकर ने अछूतों को सामाजिक एवं धार्मिक मान्यता दिलाने हेतु तीव्र संघर्ष छेड़ा था । सदियों से अपनी अस्मिता खो चुके शोषित, दलित, पीड़ित जनों में उन्होंने सत्य, धर्म और अहिंसा के माध्यम से नवीन चेतना का संचार किया। उन्होंने न केवल दुर्बल , शोषित लोगों का नेतृत्व किया बल्कि उनमें चेतना की ज्योति प्रज्वलित की, जिससे उन्हें सदियों से जकड़ी हुई गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने की वैचारिक शक्ति प्राप्त हुई ।
डॅा•अंबेडकर ने साइमन कमीशन और गोलमेज परिषद का न केवल समर्थन किया बल्कि उसमें भाग भी लिया । उनके ठोस तर्कों से अंग्रेजी सरकार प्रभावित हुई और दलितों की स्थिति में सुधार लाने के लिए अनेक कानून बने । उनके लिए ‘कम्युनल एवार्ड’ के तहत सुविधाएँ दी गयीं , जो ‘पूना-पैक्ट’ में बदलकर सीमित हो गयी। बाबा साहब समाज और राजनीति को जोड़कर देखते थे। 1946 में संविधान सभा के सदस्य , अंतरिम सरकार में कानून मंत्री बनना और 1951 में मंत्री पद से इस्तीफा आदि उनके जीवन के अनेक पड़ाव हैं । 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म धारण किया।
भारत जैसे धर्म निरपेक्ष देश में आज धर्मांतरण पर भले ही किसी को कोई आश्चर्य न हो किन्तु भारतीय इतिहास के उस काल में जब देश का भविष्य गढ़ा जाने वाला था। डॅा•अंबेडकर जैसे महापुरुष का एक धर्म छोड़कर दूसरे में चले जाना काफी महत्व रखता है। बाबा साहब के धर्मांतरण की घोषना ने समूचे देश में खलबली मचा दी। महात्मा गांधी, मालवीय, डॅा राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू आदि अनेक नेताओं ने प्रतिरोध किया था । इस अवसर पर ‘सूरकर महाराज’ को दिये गये एक साक्षात्कार में अंबेडकर ने कहा था –
‘”इस समस्या का निदान सवर्ण हिन्दू ही कर सकते हैं। मैं 5-10 वर्षों तक इंतजार कर सकता हूँ। लेकिन क्या इस बीच आपको किसी योग्य अस्पृश्य को शंकराचार्य की गद्दी पर बिठाने की हिम्मत है ? क्या ऐसे शंकराचार्य के पाँवों पर 100 चित्तपावन ब्राह्मण परिवार गिरकर अपने हृदय परिवर्तन का परिचय दे सकते हैं ? यदि नहीं तो फिर हिन्दू धर्म में रहने का आग्रह क्यों ?” [4]
और सचमुच अंबेडकर ने इंतजार किया। किन्तु कई वर्षों तक छुआछूत और जाति-भेद के खिलाफ लड़ते रहने और अनेक सुधारवादी आंदोलनों के बाद भी हिन्दू धर्म की रीढ़ सीधी नहीं हुई। अस्थायी तौर पर लगता था सुधार हो रहा है, अनेक हिन्दू नेता और समाज सुधारक भी अंबेडकर के साथ थे किंतु आंदोलनों का प्रभाव खत्म होते ही अछूतों के साथ पुनः वैसा ही व्यवहार शुरू हो जाता था । ‘महाड़ आंदोलन ‘और नासिक के ‘काला राम मंदिर’ में प्रवेश के उनके सत्याग्रह के पाँच वर्ष बीत जाने पर भी कोई सुधार नहीं आ रहा था । इसी लिए उन्होंने धर्मांतरण की घोषणा की। धर्म परिवर्तन की घोषणा से देश के सभी धर्मों के लोग उनके पास आये। मुस्लिम संगठनों ने कहा कि आप इस्लाम धारण कर लीजिए , देश के आठ करोड़ मुसलमान आप का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार हैं। हिन्दू महासभा ने बड़े ही कातर भाव से उनसे धर्मांतरण की अपील की। ईसाई धर्म के ‘विशप’ भी आये पर अंबेडकर ने किसी भी अन्य धर्म को स्वीकार नहीं किया। अंबेडकर के मत परिवर्तन के लिए गांधी जी ने बहुत कोशिश की पर वे विफल रहे। अंततः अंबेडकर इतने दृढ़ होगए कि उन्होंने घोषणा कर दी –
“दलितों को हिन्दू धर्म का परित्याग न करने के लिए मनाने हेतु इस बार अगर गांधी अनशन भी करें, तो मैं इसे एक गलत उद्देश्य के लिए उठाया गया कदम मानूंगा। ‘पूना-पैक्ट’ के दिनों में उनका रूख देख चुका हूँ। यह मेरा निश्चित मत है कि वे सवर्ण हिन्दूओं के पक्ष पोषक हैं।” [5]
इसके बाद 14 अक्तूबर 1956 को एक विशाल जन सभा में लाखों दलितों के साथ नागपूर में उन्होंने बौद्ध धर्म का स्वीकार किया। डॅा•अंबेडकर खुद विद्वान , दार्शनिक थे। किसी भी विचारधारा या पंथ को वे उसी रूप में स्वीकार नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म में भी अनेक परिवर्तन कर उसे दलितों के अनुकूल बनाया। अंबेडकर द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म ‘नवबौद्ध’ कहलाता है।
डॅा•अंबेडकर जात-पाँत तोड़कर भारत में वर्गहीन, वर्णहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। इस मानवतावादी लक्ष्य को प्राप्त करने में उन्हें अंग्रेजी सरकार से सहयोग लेने में भी कोई हिचक नहीं थी। उनके इस कथन में एक पीड़ा जनक सच्चाई है – “अंग्रेज देर से आये और जल्दी चले गए।” क्योंकि सारा स्वतंत्रता संग्राम या राष्ट्रीयता सिर्फ ऊँचे वर्गों और वर्णों का मामला था – वह न तो स्त्रीयों को मुक्त करता है, न दलितों को। 9 दिसंबर 1945 मनमाड की विशाल जन सभा को संबोधित करते हुए अंबेडकर कहते हैं – “मेरा मतलब यह है कि आप लोग जिस स्वराज्य की मांग कर रहे हैं, उस स्वराज्य में किसका किस पर राज्य होगा ? राज कौन करेगा ? क्या आप का इरादा अछूतों पर राज करना है ? जो स्वराज्य मिलने वाला है वह किसका होगा ? शायद तुम्हें तुम्हारा स्वराज्य मिलेगा लेकिन तुम्हारे स्वराज्य का मतलब हमारी गुलामी तो नहीं। ?” [6]
यह बात 1920 के आसपास के स्वामी अछूतानंद के कथन से स्पष्ट होती है –
“तुम अपनी खातिर स्वतंत्रता को समझ रहे हो आवश्य लाजिम , मगर करोड़ों ही आदि हिन्दू गुलामी में क्योंकर जड़ें रहेंगे।” [7]


डॅा•अंबेडकर का मानना था कि राजनीतिक आजादी के लिए तैयार होने से पहले हमें सामाजिक एकता और बंधुता बनानी चाहिए, अन्यथा राजनीतिक आजादी हमारे काम नहीं आयेगी। उन्होंने वर्णाश्रम और जाति संरचना पर लोकतांत्रिक भारत के निर्माण को गोबर के ढ़ेरपर महल का निर्मान करने जैसा कहकर नयी पीढ़ी को इसके संभावित खतरों के प्रति आगाह किया।अंबेडकर की वैचारिकता पर विज्ञान निष्ठा, आधुनिक सामाजिक चिंतन और पश्चिमी राजनीतिक, आर्थिक अवधारणाओं की गहरी छाप थी। उनका मानना था कि किसी भी प्रकार की सामाजिक क्रांति के लिए सुस्पष्ट विचारधारा जरूरी है। उन्होंने लिखा भी है -‘मैं राजनीति, समाज कार्य में होते हुए भी आजीवन विद्यार्थी हूँ ।’ अध्ययनशील अंबेडकर ने हिन्दू समाज व्यवस्था के दोष बताने और अंतर्निहित अमानुषिकता को उजागर करने के लिए आधुनिक समाजशास्त्रों को भी बारीकी से पढ़ा था। गांधी जी और अंबेडकर के मानस की बनावट पूरी तरह उलटी थी क्योंकि अंबेडकर ने स्वयं सवर्णों से अपमान , अन्याय और अमानुषिकता को झेला था।इस प्रकार मिशन एक होते हुए भी दोनों में ज़मीन-आसमान का फर्क था । इन दोनों के द्वन्द्व को कबीर और तुलसी के द्वन्द्व के रूप में देखा जा सकता है। कबीर समाज में नवजागरण लाकर सभी पुरानी परंपरा और प्रथाओं को तोड़ना चाहते थे जबकि तुलसी केवल सुधार – परिष्कार द्वारा परंपरा का पुनर्जागरण चाहते थे। अछूत समस्या पर गांधी जी के विचार बिलकुल परंपरावादी हैं। यह 1934 के ‘हरिजन पत्र’ के एक अंक से स्पष्ट होता है –
” जो इस जन्म में ब्राम्हण के कर्तव्यों का पालन करता है वही सफलता पूर्वक अगले जन्म में ब्राह्मण के घर पैदा होगा। पर इसी जन्म में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में परिवर्तन से बड़ी गड़बड़ी पैदा होगी। हिन्दू धर्म में मनुष्यता का सबसे सुंदर फूल ब्राह्मण हैं। मैं ऐसी कोई बात नहीं होने देना चाहता जिससे वह मुरझा जाये। यह मैं जानता हूँ कि वह अपनी रक्षा कर सकता है। ••• अब्राह्मणों के सिर पर यह कलंक नहीं होना चाहिए कि उन्होंने फूल की सुगंध तथा ज्योति छीनने की चेष्टा की।” [8]
वर्ण-व्यवस्था के प्रति यह थी गांधी जी की विचारधारा। गांधी के विपरीत अंबेडकर के विचार बड़े ही वैज्ञानिक और क्रांतिकारी थे, जो आज के समाज के लिए अधिक प्रासंगिक है। राज्य द्वारा ऐसे समाज का निर्माण जिस का चरित्र लोकतांत्रिक होगा और उसमें रहनेवाला हर व्यक्ति हर प्रकार के शोषन से मुक्त रहेगा। अत: मुक्ति की यह अवधारणा समाजवादी समाज व्यवस्था की अवधारणा है। कार्ल-मार्क्स और माओ-स्ते-तुंग के लिए इस व्यवस्था की स्थापना में मूलतः आर्थिक संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रश्न था। पर अंबेडकर के लिए यह आर्थिक संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन के साथ-साथ जाति व्यवस्था के उन्मूलन का भी प्रश्न था । इसीलिए भारत में समाजवादी समाज की स्थापना का प्रश्न अत्यंत जटिल था । यहाँ श्रम का ही विभाजन नहीं बल्कि श्रामिकों का विभाजन भी हैं। परिणामतः व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष में श्रामिकों को संगठित करना मुश्किल होता है। इस स्तर पर जाति-व्यवस्था दो रूपों में कार्य करती है। एक तो यह शोषण का आधार होती है और दूसरे यह कि समाजवादी समाज की स्थापना के लिए श्रामिकों को एकजुट करने में बाधा पहुंचाती है इसलिए अंबेडकर के यहाँ मुक्ति की भौतिकवादी अवधारणा ‘जातिविहीन समाजवादी समाज व्यवस्था’ की अवधारणा है। अंत में मुक्ति की भौतिकवादी अवधारणा को कबीर की दो पंक्तियों में समेटा जा सकता है –


“ना कुछ देखा भाव भजन में, ना कुछ देखा पोथी में।
कहैं कबीर सुनो भाई संतों, जो देखा सो रोटी में।।”


अत: स्पष्ट है कि इस भौतिकवादी मुक्ति में ही अस्मिता का रहस्य छिपा हुआ है और अस्मिता के प्रश्नों से ही अंबेडकर वादी दर्शन बना हुआ है। 29 मई 1953 के चम्बूर व्याख्यान में अंबेडकर कहते हैं – ” आज कल अपने समाज के युवक – युवतियों की जो पोशाक हैं वह मुझे बड़ी पसंद है। हमारे पास हमेशा कम-से-कम दो पोशाकें होनी चाहिए। एक हम जो धंधा करते हैं उस समय पहनने की और दूसरी पोशाक काम करने के बाद नहा-धोकर पहननी चाहिए । कपड़े भारी कीमत के ही होने चाहिए, यह मेरा कहना नहीं है। कपड़े एकदम मामूली किस्म के हो लेकिन वे ढ़ंग के साफ-सुथरे होने चाहिए।” [9]


वे दलितों की गुलामी का कारण अशिक्षा को मानते हैं । दलितों का पहला संकट पहचान का संकट है इसलिए अंबेडकरवादी दर्शन स्वाभिमान, अस्मिता और सम्मान की बात करता है। शिक्षा संबंधी अंबेडकर के विचार है – ” अध्ययन गंभीर होना चाहिए, आधी पढ़ाई करने से कोई फायदा नहीं। इम्तिहान तो कोई भी पास कर सकता है । केवल इम्तिहान पास करके उपाधियाँ पाने से क्या फायदा ? छात्रों को रचनात्मक कार्य करके दिखाना चाहिए । पत्थर तोड़ने का काम करने और क्लर्क बनने में कोई फर्क नहीं।” [10]
अंबेडकर देश का उत्थान जल्दी होने की बात और देर से होने की बात भी यहाँ जातिभेद किस अनुपात में समाप्त होगा, इस पर निर्भर मानते हैं। उनकी लोकतंत्र की परिभाषा निम्न हैं- ” लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में बगैर किसी तरह के रक्तपात के क्रांतिकारी परिवर्तन करनेवाली शासन-प्रणाली ही लोकतंत्र है।”[11]
जिस शासन-प्रणाली की वजह से सत्ताधारी दल सामाजिक और आर्थिक क्षत्र में बुनियादी बदलाव ला सकते हैं, इस तरह का बदलाव स्वीकार करते समय जनता किसी प्रकार की हिंसा का रास्ता नहीं अपनाती, वही लोकतंत्र है। आधुनिक काल में दलित समुदाय में सामाजिक परिवर्तन हेतु अंबेडकर का आंदोलन प्रमुखरूप से सामने आता है। बाबा साहब ने अपनी आधुनिक शिक्षा, ज्ञान तथा प्राश्चात्य देशों में जन सामान्य को प्रदत्त मानव अधिकारों के बल पर भारत में दलितों के सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, धार्मिक आदि अनेक अधिकारों को मुहैया कराने हेतु संघर्ष छेड़ा। उन्होंने भारतीय समाज की परंपरा तथा संरचना दोनों ही के बदलाव हेतु आंदोलन चलाएँ। आजाद भारत में अंबेडकर के बाद सत्तर के दशक में दलित चेतना के विकास में एक बार फिर से ऐसे सामाजिक- सांस्कृतिक संगठनों की आवश्यकता महसूस हुई। 1972 के आस-पास महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में ‘दलित पैन्थर’ नामक संगठन ने दलितों में क्रांतिकारी चेतना पैदा की । ‘दलित पैन्थर’ ने दलित साहित्य के वैचारिक आंदोलन में ठोस भूमिका अदा की। इसका मूल वैचारिक आधार बुद्ध, फूले और अंबेडकर के चिंतन और दर्शन हैं। यहीं आगे चलकर अंबेडकरवादी दर्शन बन गया।


किसी भी चेतना और क्रांति के विकास में उसके साहित्य और भावधारा की बहुत बड़ी भूमिका होती है। यह विचार और भावना के स्तर पर क्रांति की पहली तैयारी है। दलित चेतना के विकास में दलित साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है। मध्यकाल के दलित कवियों से लेकर आधुनिक काल तक के दलित साहित्यकारों ने मुख्यधारा के समानांतर कुछ ऐसे साहित्य का सृजन किया है, जो दलितों के सामाजिक यथार्थ का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है। कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, नाटक आदि साहित्य की प्रायः समस्त विधाओं में दलित साहित्यकारों की रचनाएँ आ रही है।जो दलित पीड़ा, असंतोष, संवेदना, आक्रोश और विद्रोह की अभिव्यंजना बखूबी कर रही है। अब दलित साहित्य एक अलग अस्मिता और स्वतंत्र पहचान बन चुकी है। भारतीय साहित्य में दलित चेतना सर्वप्रथम मराठी भाषा में आयी । यह अंबेडकरवादी दर्शन का ही परिणाम था। धीरे – धीरे इस चेतना का प्रसार अन्य भारतीय भाषाओं में भी हुआ। आज दलित साहित्य का सृजन मुख्य रूप से हिन्दी में ही हो रहा है। अनेक दलित साहित्यकार अपनी प्रखर साहित्यिक – सामाजिक चेतना से रचनाशील है।
दलित साहित्य के स्वरूप, उसकी प्रतिबद्धता, उसके सरोकार और सौंदर्यशास्त्रीय विवेचन से उसकी साहित्यिकता स्पष्ट हो जाती है। सूरजपाल चौहान की निम्न पंक्तियों से अस्मिता की खोज का तेवर झलकता है तो दूसरी और ऐतिहासिक झूठापन ।


“तुम्हें ! मंगल सिंह पाण्डे याद आता है,
मातादीन भंगी या बिरसा मुण्डा याद नहीं।
झाँसी की रानी भी याद है, लेकिन कोरी झलकारी बाई याद नही।” [12]


दलित साहित्य केवल व्यक्तिगत अनुभवों की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि यह सामूहिक मन की पीड़ा है। इसकी भाषा सरल और आम बोलचाल की भाषा है। कुछ पारंपरिक आलोचक दलित साहित्य की भाषा पर अश्लील, गाली- गलौज का आरोप लगाते हैं लेकिन ये शब्द आम बोलचाल और जन-जीवन के व्यवहारों के करीब है इसलिए इन्हें अशलील कहना उचित नहीं है। वे जिस परिवेश में जीते हैं, उसे पारंपरिक आलोचक जानते नहीं है। यह बात दलित आलोचक कंवल भारती के शब्दों से स्पष्ट होती है –
” यह बताओ/ बलात्कार की शिकार तुम्हारी माँ की भाषा कैसी होगी ? / कैसे होंगे / गुलामी की ज़िंदगी जीने वाले तुम्हारे बाप के विचार? / ठाकुर की हवेली में दम तोड़ती / तुम्हारी बहन के शब्द? क्या वे सुंदर होंगे ?” [13]
रमणिका गुप्ता दलित साहित्य को सामाजिक आंदोलन मानती है। उनके अनुसार दलित साहित्य अभिजात साहित्य से बिल्कुल भिन्न है। वह उनके मिथकों को तोड़कर नये मिथक गढ़ता है या पुराने मिथकों को नये सिरे से परिभाषित करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने पौराणिक मिथकों को दलित पीड़ा और विद्रोह का दस्तावेज बनाया है। शंबूक के मिथक द्वारा कवि ने दलित क्रांति को वाणी दी है – ” शंबूक तुम्हारा रक्त ज़मीन के अंदर/ समा गया है/जो किसी भी दिन फूटकर बाहर आयेगा /ज्वालामुखी बनकर।” [14]
दलित साहित्य अब अपनी गुलामी की पहचानकर उसका विरोध कर रहा है। यह सुदेश तनवर के इस पंक्तियों से दृष्टिगोचर होता है –


“मैं, विद्रोह करूँगा
उन सारे शब्दों के खिलाफ
जिनसे गढ़े गए तुम्हारे धर्मशास्त्र और झूठ भरे इतिहास।
मैं विद्रोह करूँगा, चुप नहीं रहूँगा।” [15]


अत: स्पष्ट है कि, अंबेडकरवादी दर्शन बौद्ध से लेकर अंबेडकर तक के समतामूलक विचारों का संगम है और यह समतामूलक विचारों का प्रवाह निरंतर गतिशील है। यह हमें दलित अस्मिता आंदोलन , संगठन तथा साहित्य के माध्यम से दिखाई देता है। इस दृष्टि से अंबेडकरवादी अर्थात दलित साहित्य शुद्ध कला न होकर एक सामाजिक आंदोलन है । उसका मुख्य सरोकार अपनी संस्कृति, परंपरा और इतिहास में अपनी पहचान तथा अपनी अस्मिता की खोज करना है, जो समानता, बंधुता व स्वतंत्रता जैसे जनतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। यही अंबेडकरवादी दर्शन का मूल मंत्र है।

संदर्भ सूची:
[1] अंबेडकर : एक चिन्तन – मधुलिमये , पृष्ठ -2
[2] डॅा•अंबेडकर का आंदोलन और समकालीन मीडिया – कंवल भारती, पृष्ठ -33
[3] वहीं पृष्ठ -37
[4] मैंने हिन्दू धर्म क्यों छोड़ा ? – सुशील कुमार मोदी के लेख से ‘हिन्दुस्तान’ ,14 अप्रैल 2006
[5] वहीं
[6] और बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा – (खण्ड 4), विमल कीर्ति – पृष्ठ 76
[7] सत्ता की शतरंज और दलित मोहरे : राजेन्द्र यादव, ‘हंस’ , अगस्त 2004 – पृष्ठ 5
[8] भारत के सामाजिक क्रांतिकारी – देवेन्द्र कुमार बेसन्त्री – पृष्ठ 7
[9] और बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा – (खण्ड 5), विमल कीर्ति – पृष्ठ 143

[10] वहीं – पृष्ठ 242
[11] वहीं – पृष्ठ 168
[12] दलित साहित्य का समाजशास्त्र – हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, 2009
[13] वहीं
[14] दलित साहित्य के प्रतिमान – डॅा•एन•सिंह, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 283
[15] दलित साहित्य का समाजशास्त्र – हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, 2009

कदम राष्ट्रपाल, शोधार्थी और हिंदी अध्यापक
अम्बेडकर मुक्त विश्वविद्यालय

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