स्वप्न था मेरा भयंकर! साहित्य जन मंथन

स्वप्न था मेरा भयंकर!

रात का-सा था अंधेरा, बादलों का था न डेरा, किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर! स्वप्न था मेरा भयंकर! क्षीण सरिता बह रही थी, कूल से यह कह रही थी- शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर! स्वप्न था मेरा भयंकर! धार से कुछ आगे पढ़ें..

त्राहि त्राहि कर उठता जीवन साहित्य जन मंथन

त्राहि त्राहि कर उठता जीवन

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन! जब रजनी के सूने क्षण में, तन-मन के एकाकीपन में कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता, त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन! जब उर की पीडा से रोकर, फिर कुछ सोच समझ चुप होकर विरही अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ हटाता, आगे पढ़ें..

मैं कल रात नहीं रोया था साहित्य जन मंथन

मैं कल रात नहीं रोया था

मैं कल रात नहीं रोया था दुख सब जीवन के विस्मृत कर, तेरे वक्षस्थल पर सिर धर, तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था! मैं कल रात नहीं रोया था! प्यार-भरे उपवन में घूमा, फल खाए, फूलों को चूमा, कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने आगे पढ़ें..

नीड का निर्माण साहित्य जन मंथन

नीड का निर्माण

नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्णान फिर-फिर! वह उठी आँधी कि नभ में छा गया सहसा अँधेरा, धूलि धूसर बादलों ने भूमि को इस भाँति घेरा, रात-सा दिन हो गया, फिर रात आ‌ई और काली, लग रहा था अब न होगा इस निशा का फिर सवेरा, रात के उत्पात-भय आगे पढ़ें..

आत्‍मपरिचय साहित्य जन मंथन

आत्‍मपरिचय

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ; कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ! मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ, मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ, जग पूछ रहा है आगे पढ़ें..

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ साहित्य जन मंथन

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ

सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुख झेले, दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! नहीं खोजने जाता मरहम, होकर अपने प्रति अति निर्मम, उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! आह निकल आगे पढ़ें..

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? साहित्य जन मंथन

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? ‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’ और न कुछ मैं कहने पाया – मेरे अधरों पर निज आगे पढ़ें..

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती साहित्य जन मंथन

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती कोशिश करने वालों की हार नहीं होती नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है मन का विश्वास रगों में साहस भरता है चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती आगे पढ़ें..

लो दिन बीता लो रात गयी साहित्य जन मंथन

लो दिन बीता लो रात गयी

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा, डूबा, संध्या आई, छाई, सौ संध्या सी वह संध्या थी, क्यों उठते-उठते सोचा था दिन में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात गई धीमे-धीमे तारे निकले, धीरे-धीरे नभ में फ़ैले, सौ रजनी सी वह रजनी थी, क्यों संध्या को यह सोचा था, आगे पढ़ें..

क्या है मेरी बारी में साहित्य जन मंथन

क्या है मेरी बारी में

जिसे सींचना था मधुजल से सींचा खारे पानी से, नहीं उपजता कुछ भी ऐसी विधि से जीवन-क्यारी में। क्या है मेरी बारी में। आंसू-जल से सींच-सींचकर बेलि विवश हो बोता हूं, स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा है मेरी इस लाचारी में। क्या है मेरी बारी में। टूट पडे मधुऋतु मधुवन आगे पढ़ें..