कुछ सुनहरे पल जिए थे मैंने
हां बचपन के वो पल जिए थे मैंने।।
बरसात के पानी में कागज की किश्तियां चलाई थी मैंने,
गलियों में स्टापू और छुपन छुपाई खेली थी मैंने ,
जहां बात- बात पर तू तू मैं मैं थी
सुबह शाम बस वही हकीकत थी ,
वह चबूतरा हमारा अड्डा था ,
कोई किसी को नीचा नहीं दिखाता था
वह सच्ची मीत जी थी मैंने,
हां बचपन के वो पल जिए थे मैंने।।
वह मेरे गुड्डे से ,तेरी गुड़िया की शादी कराई थी मैंने,
फिर एक ही छत के नीचे कई सदियां बिताई थी मैंने ,
वहां न जून की गर्मी का असर था,
न जनवरी के कड़ाके की ठंड का,
हां मजा था तो बस उस अंगूठी की आंच का, जिसके चारों तरफ बैठ मूंगफलियां खाई थी मैंने,
हां बचपन के वो पल जिए थे मैंने।।
उसके चूल्हे का साग, मेरे घर की आलू की सब्जी,
उसके घर की रोटी, मेरे घर की दही
खूब खाई थी मैंने ,हां वह पल जिए थे मैंने
दोस्तों की साइकिल, ले कैची सी चलाई थी मैंने,
जब चोट लगी तो हाहाकार मचाई थी मैंने फिर दोस्तों की उस बात पर “चल अब बस कर नाटक बाज” पर ठहका लगाकर हंसी उड़ाई थी मैंने,
हां वह खूबसूरत पल जिए थे मैंने ।।
गुल्ली डंडे से जब शीशा टूटा तो
बेचारों सी शक्ल बनाई थी मैंने,
होली दिवाली ईद सब त्योहारों पर धूम मचाई थी मैंने ,
हां बचपन के वो पल जिए थे मैंने।।
ना किसी नौकरी की थी चिंता ,ना पैसों की कमी सताती थी ,यारों की यारी ही अमीर बनाती थी ,
वह रहीसी जी थी मैंने।।
अब ना है ना वह दोस्ती है ,भागती दौड़ती अभिलाषाओं ने बचपन में आग लगाई है ,
टीवी, मोबाइल, गेम्स ने ही तो ,बचपन की यादें चुराई है।। बचपन की यादें चुराई है।।
मोनिका शर्मा
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उपरोक्त रचना
मौलिक अप्रकाशित अ प्रसारित है।