आधुनिक शब्द समय सापेक्ष है आधुनिक दौर की शुरुआत १४ वीं शताब्दी के मध्य से यूरोप में होती है। इसकी शुरुआत १९ वीं शताब्दी में आकर हुई। डॉ नगेंद्र ने आधुनिक शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया है। मध्यकाल से भिन्नता और इहलौकिक दृष्टिकोण। मध्यकाल अपने विरोध जड़ता और रूढ़िवादिता के कारण स्थिर और एकरस हो चुका था। एक विशिष्ट ऐतिहासिक प्रक्रिया ने उसे पुनः गत्यात्मक बनाया। यह आधुनिक दृष्टिकोण था जिससे आधुनिक काल में बंधे हुए घाट टूट गए और जीवन की धारा विविध स्रोतों में फूट निकली। साहित्य मनुष्य के वृहत्तर सुख-दुख के साथ पहली बार जुड़ा। इसके साथ ही धर्म, दर्शन, साहित्य, चित्र आदि। सभी के प्रति एक नए, दृष्टिकोण इहलौकिक दृष्टिकोण का आविर्भाव हुआ। तथा सुधार परिष्कार और अतीत का पुनराख्यान नवीन दृष्टिकोण की देन ही माना जाता है।
आधुनिक शब्द एक दृष्टिकोण के रूप में लिया जाता है तथा इस दृष्टिकोण के परिणाम स्वरूप आधुनिकता का जन्म होता है। जो कि एक प्रक्रिया है और यह प्रक्रिया बहुत से देशों के इतिहास में घटित हो रही है। आधुनिकता को समसामयिक बोध माना जाता है क्योंकि यह हर दिन की गति के हिसाब से बदलती रहती है। इसका स्पष्ट अर्थ है अधुना या इस समय जो कुछ है वह आधुनिक है। अर्थात आधुनिकता एक सोच है जो व्यक्ति को इस दुनिया के प्रति अधिक जागरूक व मानवीय दृष्टिकोण से जीने का सही मार्ग दिखाती है। रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में:- “आधुनिकता एक प्रक्रिया का नाम है यह प्रक्रिया अंधविश्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है। आज जीवन का हर क्षेत्र आधुनिकता से जीने की प्रेरणा देता है तथा उसी से परिपूर्ण है”।
साहित्य के इतिहास और आलोचना में आधुनिकता एक महत्वपूर्ण अवधारणा है और इसका संबंध हिंदी साहित्य के आधुनिक काल से ही है लेकिन हिंदी में आधुनिकता बहुत विवादास्पद विषय रहा है क्योंकि भारतेंदु से लेकर आज तक इस पर लगातार बहस होती रही है। आधुनिकता के अर्थ पर, हिंदी में आधुनिकता के हृदय पर, उसके विकास की प्रक्रिया और उसकी जटिलताओं पर क्योंकि कुछ लोगों के अनुसार इसकी शुरुआत मध्यकाल से होती है तथा कुछ लोगों ने इसकी खोज भक्तिकाल में की और कुछ रीतिकाल में भी इसके साक्ष्य खोजते हैं।
हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग अथवा पुनर्जागरण काल का उदय हिंदी कविता के लिए नवीन जागरण के संदेशवाहक युग के रूप में हुआ था। और वह पुनर्जागरण भारतेंदु के माध्यम से हिंदी साहित्य में अवतरित हुआ। इसीलिए आधुनिक काल के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र को ही माना जाता है। क्योंकि उन्होंने हिंद साहित्य को एक नए मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार:- “हिंदी साहित्य अपने पुराने रास्ते पर ही खड़ा था भारतेंदु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जीवन के साथ फिर से लगा दिया।°°° हमारे साहित्य को नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त करने वाले हरिश्चंद्र ही हुए”।
क्योंकि हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक, गद्य साहित्य के प्रवर्तक- भारतेंदु हुए। इसीलिए हिंदी में आधुनिकता का उदय भी इसी भारतेंदु युग से ही होता है। यह युग वास्तव में नव जागृति का युग था। अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार तथा पश्चिमी संस्कृति के संपर्क के कारण देश के सामाजिक ढांचे में परिवर्तन हो रहा था। इस स्थिति में भारतेंदु ने हिंदी साहित्य को नए नए विषयों की ओर उन्मुख किया यह विषय मध्यकाल से भिन्न थे। यही इसकी आधुनिकता का प्रमाण था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में:- “भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस प्रकार गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर करके गद्य साहित्य को देश काल के अनुसार नए नए विषयों की ओर लगाया उसी प्रकार कविता की धारा को भी नए नए क्षेत्रों की ओर मोड़ा। इस नए रंग में सबसे ऊंचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था। उसी से लगे हुए विषय लोकहित, समाज सुधार, मातृभाषा का उद्धार आदि थे“।
आधुनिक काल अपने ज्ञान विज्ञान और प्रविधियां के कारण मध्यकाल से अलग हुआ। यह काल औद्योगिकीकरण नगरीकरण और बौद्धिकता से संबंध है। जिससे नवीन आशाएं उभरी और भविष्य का नया स्वप्न देखा जाने लगा। देश, धर्म, राष्ट्र, ईश्वर आदि की नई नई व्याख्या की जाने लगी।
हिंदी में आधुनिकता के विकास का कारण प्रेस के आगमन को माना जाता है। इसी कारण से आधुनिकता का उदय देखा जा सकता है प्रेस की स्थापना से साहित्य के क्षेत्र में आधुनिकता का समावेश हुआ डॉक्टर नगेंद्र ने लिखा है:- “नवीन अर्थव्यवस्था और नवीन शिक्षा पद्धति के कारण भारतीय जनता में एक ऐसी चेतना उत्पन्न हुई जिसके आधार पर लोग अपनी कठिनाइयों को समझने और उनको दूर करने की कोशिश करने लगे। इसके लिए प्रेस से बेहतर और कोई साधन नहीं हो सकता था“।
भारतवर्ष में मुद्रण यंत्र स्थापित करने का श्रेय पुर्तगालियों को है। सन १५५० में उन्होंने दो मुद्रण यंत्र मंगवाए। और उन में धार्मिक पुस्तकें छपी जाने लगीं। १६७४ मैं ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा मुंबई में मुद्रणालय खोला गया। १८ वीं शताब्दी में। मद्रास, कोलकाता, हुगली, मुंबई आदि स्थानों में छापेखाने स्थापित हुए मुद्रणालय की स्थापना के कारण विचारों- सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि के प्रचार प्रसार की सुविधा ही नहीं मिली वल्कि समाचार पत्रों के माध्यम से विचारों का विनिमय भी होने लगा। डॉ नगेंद्र के शब्दों में:- “इसमें संदेह नहीं कि समाचार पत्रों के माध्यम से विचारों का विनिमय सहज हो पाया भारतीय पुनर्जागरण के लिए प्रेस का वरदान अत्यधिक मूल्यवान सिद्ध हुआ”।
प्रेस के आगमन से पहले गद्य की बहुत उपयोगिता नहीं थी। प्रेस की स्थापना से प्रकाशन की सुविधा हुई जिससे गद्य की उपयोगिता भी बढ़ी और गद्य के विभिन्न रूप विकसित हुए जैसे नाटक, निबंध, कहानी, उपन्यास, एवं अन्य गद्य विधाएं साथ ही विभिन्न विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी तथा इन गद्य के विभिन्न रूपों को प्रकाशित करने के लिए विभिन्न पत्र पत्रिकाएं भी प्रेस से निकलने लगी। जिनमें नाटक उपन्यास इत्यादि गद्य धारावाहिक रूप में छपते थे। तथा निबंध, आलोचनाएं भी प्रकाशित होते थे। प्रकाशन की सुविधा से किसी भी पुस्तक की कई कई प्रतियां बनाई जा सकती थी और इन प्रतियों की खपत के लिए पुस्तक बाजार का अस्तित्व सामने आया जिसके परिणाम स्वरूप साहित्य का निषेध टूटा, अब कोई भी व्यक्ति साहित्य से परिचित हो सकता है। इस प्रकार प्रेस ने साहित्य को प्रजातांत्रिक रूप दे दिया यह हिंदी में आधुनिकता का ही लक्षण माना जा सकता है।
भारतेंदु युग में असंख्य पत्र-पत्रिकाओं का विकास हुआ अतः छापेखाने का प्रभाव साहित्य के लिए अत्यंत हितकर साबित हुआ। भारतेंदु युग में ऐसा कोई साहित्यकार नहीं था जो पत्र-पत्रिकाओं से नहीं जुड़ा था प्रत्येक साहित्यकार किसी ना किसी पत्र या पत्रिकाओं का संपादन करते थे। जैसे भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र चंद्रिका और बालाबोधिनी पत्रिका का संपादन किया। इसके साथ भारतेंदु मंडल के प्रत्येक लेखक व साहित्यकार बालकृष्ण भट्ट– हिंदी प्रदीप, प्रताप नारायण मिश्र– ब्राह्मण, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन– आनंद कादंबिनी ,नागरी नीरद, राधाचरण गोस्वामी– भारतेंदु, अंबिकादत्त व्यास– पियष प्रवाह भी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करते थे। क्योंकि पत्रकारिता का संबंध अपने समय और समाज से गहरा होता है। इसीलिए भारतेंदु युग के लेखकों में अपने समय और समाज का बोध मौजूद है। क्योंकि इन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री उन समय की जनता की चित्तवृत्ति एवं सुरुचि के अनुकूल थी। यह भी हिंदी की आधुनिकता का ही लक्षण था। जिससे भारतेंदु युग के लेखकों ने हिंदी गद्य की उन्नति में योगदान किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में:- “हिंदी गद्य की सर्वतोमुखी गति का अनुमान इसी से ही हो सकता है कि पचीसों पत्र पत्रिकाएं हरिश्चंद्र जी के जीवन काल में निकली”।
भारतेंदु युग की इन पत्र-पत्रिकाओं में शुद्ध साहित्य ही नहीं छपता था बल्कि समसामयिक समस्याओं पर भी प्रकाश डाला जाता था। पत्र-पत्रिकाओं का अधिकतर साहित्य समाज को प्रस्तुत करता था जिसमें सुरुचि एवं नैतिकता के साथ राष्ट्रभक्ति का योग भी था पत्र पत्रिकाओं के प्रकाशन का अर्थ ही था कि दूसरों की समस्याओं की साझेदारी करना और उनको लेकर नई-नई वैचारिक भूमिका को तैयार करना। तथा आधुनिक युग के साहित्य में जो वैविध्य, वैयक्तिक, कल्पना छवियां, बौद्धिकता ,प्रयोगात्मकता आई उनका आंशिक दायित्व छापाखाना पर ही है। इस तरह भारतेंदु युग की पत्र पत्रिकाएं एक और जनतांत्रिक भावनाओं का पोषण कर रही थी और दूसरी ओर समाज की रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे रही थी।
भारतेंदु युग जन जागरण का ययुग है। इस युग में जनचेतना पुनर्जागरण की भावना से अनुप्राणित थी। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्य दर्शन और चिंतन के क्षेत्र में समस्त भारतीय जनमानस में एक नवीन क्रांति आई। तथा देश में अंग्रेजी राज से मुक्ति के आंदोलन जगह-जगह चल रहे थे। अट्ठारह सौ सत्तावन ईसवी में सिपाही विद्रोह की असफलता के बाद अनेकों राष्ट्रीय आंदोलन हुए जिनकी छाप भारतेंदु युगीन साहित्य पर भी देखी जा सकती है।
हिंदी की आधुनिकता की पहली अवस्था भारतेंदु युग में। देश की दशा का बोध है इस युग के लगभग सभी लेखक देश की दशा से पूर्ण तरह परिचित है। क्योंकि देश गुलाम था और तरह-तरह की शोषण नीति अंग्रेज अपनाकर भारत को रसातल में भेज रहे थे। इनकी गतिविधियों पर भारतेंदु सहित पूरे भारतेंदु मंडल की दृष्टि थी। भारतेंदु ने स्वयं देश की दुर्दशा का चित्रण अपने निबंधों में किया इसके साथ वे अपने नाटकों में भी इसका चित्रण करते हैं भारत दुर्दशा नाटक में भारतेंदु अंग्रेजों की शोषण नीति का उल्लेख करते हुए कहते हैं।
“अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी”।
अंग्रेजों ने भारत में प्रेस छापेखाने डाक व्यवस्था रेलगाड़ी सड़क यातायात शिक्षा व्यवस्था भले ही की हो लेकिन यह सब उन्होंने अपने लाभ के लिए ही किया था और वे भारत को। आर्थिक रूप से कमजोर करना चाहते थे। प्रताप नारायण मिश्र लिखते हैं:-
“सब धन लियो जात पिलायत रहयो दलिछर छाई
अन्न वस्त्र कौ सब तरसे होरी कहाँ सोहाई“।
भारतेंदु युग का प्रत्येक लेखक साहित्य के माध्यम से जनताा को देश की दुर्दशा से परिचित कराना चाहते थे। जिससे जनता अपने देश से जुड़ सके। इस कारण भारतेंदु युग में राष्ट्रीयता की भावना ने जन्म लिया। इस राष्ट्रीयता के दो पक्ष थे। देशप्रेम और राजभक्ति।
देश की दुर्दशा का बोध हिंदी में आधुनिकता का पहला लक्षण था। दुर्दशा से मुक्ति की चिंता, स्वाधीनता की चिंता बनने लगी और भारतेंदु युग के प्रत्येक लेखक ने सजगता से इसे साहित्य में प्रस्तुत किया। रामविलास शर्मा के अनुसार:- “साहित्य के माध्यम से उन्होंने स्वदेशी और स्वाधीनता की समस्या लोगों के सामने रखी दृढ़ता से उन्होंने अपने मत का प्रचार किया और इस तरह जनता को भाभी स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार किया“।
पराधीनता की वास्तविकता का बोध और स्वाधीनता की आकांक्षा ही हिंदी में आधुनिकता का बुनियादी लक्षण है। जिसे भारतेंदु युग के लेखकों ने देखा जा सकता है। उन्होंने भारतीय इतिहास के गौरवशाली अतीत का ही वर्णन नहीं किया वरन अंग्रेजों की विचारधारा को भी व्यक्त किया एक तरफ से देशभक्ति पूर्ण। कविताएं लिखते थे तो दूसरी तरफ राज भक्ति पर कविताएं भी उन्होंने लिखी हैं। डॉ बच्चन ने भारतेंदु हरिश्चंद्र के बारे में लिखा है:- “एक तरह से वे अंतर विरोधी के पुण्य हैं वे विशिष्ट भी थे और सामान्य भी राज भक्त भी थे। देशभक्त भी परंपरा वादी भी थे आधुनिक भी“।
यह अंतर्विरोध भी अपनी जगह सही सिद्ध होते हैं। जहां अंग्रेजों ने भारत वासियों के हित में कार्य किए वहीं भारतेंदु युग के लेखकों ने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की लेकिन जहां उन्हें उनकी नीतियां भारत के हित में नहीं लगी। वहां उन्होंने अंग्रेजों की प्रत्यक्ष आलोचना की है। भारतेंदु ने अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे शोषण का अंकन इस प्रकार किया।
भीतर भीतर सब्रस चूसे, हंसि हंसि के तन मन धन मूसे।
जाहिर बातन में अति तेज क्यों सखि साजन नहीं अंग्रेज।
देशभक्ति और राजभक्ति का अद्भुत समन्वय भारतेंदु जी में मिलता है लेकिन इस राज भक्ति से ज्यादा उन्हें देश की दुर्दशा की चिंता है। उन्होंने नीलदेवी, अंधेर नगरी, भारत दुर्दशा, के माध्यम से जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना मुखरित की है। रामविलास शर्मा ने लिखा है:- “भारतेंदु ने जिस संस्कृति की नींव डाली व राष्ट्रीय थी। उसकी मूल भावना अंग्रेजी। राज्य की लूट से देश की रक्षा करके। उसकी उन्नति करना है“।
भारतेंदु युग के लेखकों में देश की दशा के बोध के साथ-साथ सामाजिक चेतना के विकास की चिंता भी थी। उन्होंने सामाजिक जीवन की उपेक्षा ना करके जनता की समस्याओं के निरूपण किया और व्यापक रूप से अपना ध्यान केंद्रित किया। इसके पूर्व रीतिकाल में राजाओं और सामंतों के आश्रय में लिखित दरबारी काव्य में सामाजिक परिवेश के चित्र की ओर नगण्य रूप से ध्यान दिया गया था। इसीलिए भारतेंदु युग मध्य काल से भिन्न आधुनिक दृष्टिकोण से प्रेरित था और इस युग में नारी रक्षा, विधवाओं की दुर्दशा, अस्पृश्यता आदि को लेकर सहानुभूति पूर्ण कविताएं ,नाटक आदि लिखे। भारत धर्म कविता में अंबिकादत्त व्यास द्वारा वर्णाश्रम धर्म का द्रणतापूर्वक अनुमोदन और राधाचरण गोस्वामी द्वारा विभिन्न कविताओं में प्राचीन शास्त्र की नीतियों का समर्थन एवं विधवा विवाह का विरोध कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो उदारता समन्वित नहीं थे किंतु इसके अलावा भारतेंदु, प्रेमघन और प्रताप नारायण मिश्र ने सुधारवादी मनोवृति से परिचालित होकर लिखा। ‘मन की लहर‘ में मिश्र जी ने बाल विधवा की करुणा दशा की ओर संकेत। किया है बाल विधवा की करुणा दशा की ओर संकेत। किया है।
“कौन करेजो नहिं कसकत,
सुनि विपत्ति बाल विधवन की”।
भारतेंदु युग के लेखकों ने स्त्री शिक्षा पर बल, अनमेल विवाह, छुआछूत आदि सामाजिक समस्याओं के विषयों को अपने साहित्य में समाहित किया है। उनके साहित्य ने सचेत रूप से साहित्य को सामाजिक चेतना से संबंध किया है। धर्म व शास्त्र की जकड़बंदी से मुक्त कराके साहित्य को आधुनिकता की चेतना की ओर उन्मुख किया। नीलदेवी में भारतेंदु लिखते हैं:-
“कहाँ करुणानिधि केसव सोए,
जागत नेकु न यदपि बहुत विधि भारतवासी रोए”।
आधुनिक काल में हास्य और विनोद के नए विषय भी अपनाए गए। रीतिकाल के कवियों की रूढ़ि में हास्य के आलंबन कंजूस ही चले आते थे। पर साहित्य के इस नए युग के आरंभ से ही कई प्रकार के नए आलंबन सामने आए- पुरानी लकीर के फकीर, नए फैशन के गुलाम, नोंच खसोट करने वाले अदालती अमले, मूर्ख और खुशामदी रईस नाम या दास के भूखे देशभक्त इत्यादि। भारतेंदु ने नाटकों के प्रतीकों में कहीं-कहीं शिष्ट हास्य को भी स्थान दिया इसके साथ व्यंग्यगीतियों और मुकररियों की भी रचना की है।
भारतेंदु के नाटकों में जो कविताएं हैं उनमें विषय तो आधुनिक है लेकिन इसके अलावा उनके नाटकों में ही आधुनिकता है, व्यंग में नहीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं:- “व्यंग को जिस परिणाम में भारतेंदु ने नए नए विषयों और मार्गों की ओर लगाया उस परिणाम में पद्य को नहीं।“` उनकी कविताओं के विस्तृत संग्रह के भीतर आधुनिकता कम ही मिलेगी।”
हिंदी की आधुनिकता का पहला चरण भारतेंदु युग ही माना जाता है। उन्होंने नए नए विषयों की ओर साहित्य को उन्मुख किया तथा हर जगह नवीनता का परिचय दिया। कहीं उनके साहित्य में देश के अतीत का गौरव गुणगान है, कहीं भविष्य की भावना से जुड़ी हुई चिंता और कहीं वर्तमान अधोगति की क्षोभभरी वेदना। भारतेंदु मंडल का प्रत्येक साहित्यकार सजगता से लिखता रहा है तथा भारतेंदु तो विशिष्ट थे ही। आचार्य शुक्ल ने उनके बारे में लिखा है:- “प्राचीन और नवीन का ही सुंदर सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है। साहित्य के एक नवीन युग के आदि प्रवर्तक के रूप में खड़े होकर उन्होंने यह भी प्रदर्शित किया कि नए या बाहरी भावों को पचाकर इस प्रकार मिलाना चाहिए कि अपने ही साहित्य के विकसित अंग से लगें।”
भारतेंदु युगीन साहित्य आधुनिकता की दृष्टि से रीतिकाल से भिन्न था। श्रृंगारिक रसिकता, अलंकरण मोह, रीति निरूपण, प्रकृति का उद्दीपन चित्रण आदि। रीतिकालीन प्रवृत्तियों का महत्व क्रमशः कम होता गया और भक्ति तथा नीति को प्रमुख वर्ण्य विषयों के रूप में ग्रहण करने का आग्रह भी नहीं रह गया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जनता को उद्बोधन प्रदान करने के उद्देश्य से ‘जातीय संगीत’ अर्थात लोकगीत की शैली पर सामाजिक कविताओं की रचना की इसीलिए रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा है कि:- “इस युग को आधुनिक हिंदी का आदिकाल कहना एक विशेष सार्थकता रखता है। हिंदी साहित्य के आदिकाल की तरह आधुनिक काल तक यह प्रथम चरण है जहां लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य तथा आधुनिक संदर्भ में पत्रकारिता और साहित्य के बीच संक्रमण अभी चल रहा है”।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि हिंदी की आधुनिकता की शुरुआत भारतेंदु युग से ही होती है। आधुनिक काल में प्रेस की स्थापना से ही हिंदी में आधुनिकता आई फलस्वरूप प्रकाशन की सुविधा हुई जिससे हिंदी गद्य के विभिन्न रूप उपन्यास नाटक कहानी इत्यादि विकसित हुए और उनके छपने के लिए पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ क्योंकि हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग के प्रत्येक साहित्यकार पत्रकार भी थे “इसीलिए भारतीय युगीन लेखक संवेदनात्मक स्तर पर परस्पर बहुत निकट रहे हैं। इन लेखकों की व्यक्तिगत रचनात्मक उपलब्धि समान स्तर की नहीं है पर एक वृत्त के रूप में उनका योगदान अपने में विशिष्ट है”। अतः भारतेंदु युग वह संधि स्थल है जहां प्राचीन मान्यताएं आधुनिक सामाजिक प्रवृत्तियों में विलीन होती हैं।
पवन कुमार
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