माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा कराई जा रही तमाम राज्यों में पुष्पवर्षा जिसकी जानकारी मुझे कल शाम को ही मिल चुकी थी, इस कोरोना रूपी जंग से लड़ने वाले उन तमाम योद्धाओं के प्रति एक सम्मानीय भाव, उत्साहवर्धन, उनके आत्मविश्वास को जिलाये रखना, उन्हें प्रोत्साहित करना और देश की जनता का उनके साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने जैसी भावना का यह एक छोटा-सा प्रयास और एक इशारा भर है। इस लड़ाई में वह सभी सिपाहीगण, स्वास्थकर्मी, सफाईकर्मी, इसके अतिरिक्त छोटी-बड़ी सभी तरह की सरकारी – गैर सरकारी संस्थाओं के साथ ही स्वतंत्र रूप से काम कर रहे लोग जिन्हें किसी तरह का कोई विशेष फंड नहीं मिलता उन सभी के प्रति एक सम्मानीय भाव को अभिव्यक्त करना है जो इस लड़ाई से देश को ही नहीं पूरे विश्व को कोरोना मुक्त कराने में दिनरात संलग्न हैं। अपनी जान की बाजी की फ़िक्र न करते हुए देशहित के साथ-साथ विश्वहित के लिए भी अपना अविस्मरणीय योगदान दे रहे हैं। मुझे यह कार्यक्रम भी ठीक उसी कार्यक्रम की तरह प्रतीत हो रहा है जैसाकि चंद रोज़ पहले कोरोना महामारी से लड़ रहे इन सभी योद्धाओं का करतल ध्वनि से न केवल भारत बल्कि उससे भी पहले इटली, फ्रांस और कई अन्य देशों में वैश्विक आधार पर उनका स्वागत-सतकार और उत्साहवर्धन किया गया था। उनमें एक नए तरह के आत्मविश्वास रूपी ऊर्जा के संचार की कोशिश की गई थी।
यह कार्यक्रम और इस तरह के जितने भी कार्यक्रम किसी भी देश की सरकार द्वारा किये जा रहे हैं वह एक सीमा तक बहुत सही है और ऐसी कठिन परिस्थितियों में लोगों को बांध कर रखना और उसके साथ ही उनका हौंसला-अफ़ज़ाई करना अपने आप मे एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। परंतु मेरी निजी समझ में आज ये सवाल सहज ही उठ खड़ा हुआ कि चाहे इस तरह की घटनाएं अतीत की रही हो, आनेवाले समय की या वर्तमान में विश्व जिस महामारी से जूझ रहा है उस घटना की। इन सब के एवज में किन-किन तैयारियों की आवश्यकता है? क्या हमें इस तरह के कार्यक्रमों की आवश्यकता पहले है या उस घटना से निपटने वाले वाले संसाधनों की? क्या हमें उस बीमारी से निपटने वाले उपचार की आवश्यकता पहले है या किसी तरह के आस्था या अद्वितीय, अप्रत्यक्ष या कोई दैवीय शक्ति की ? क्या हमें पीपीटी किट और वैक्सीन की आवश्यकता पहले है या अन्य किसी वस्तु की ? क्या हमें अपने स्वास्थ्य विभाग को दुरुस्त करना और इसके अतिरिक्त ऐसी विपदा में प्राथमिक सुविधाओं की पूर्ति पर ध्यान देना चाहिए या अन्य किसी कामों पर ? क्या हमें किसान की फसल कटाई से लेकर बिना किसी बिचौलिये के उसकी फसल की बिक्री की आवश्यकता पहले है या लोगों के उत्साहवर्धन की ? क्योंकि जब भी विश्व ऐसी आपदा का सामना करता है तो सबसे पहले उसके लिए स्वास्थ्य विभाग और खाद्य आपूर्ति चिंता पहले हो जाती है और होनी भी चाहिए। उसके समानांतर उस विपदा से निपटने की ज़रूरतों पर भी ध्यान देना चाहिए।
उदाहरण के लिए हम देख सकते हैं कि कोई व्यक्ति है और उस पर या उसके किसी सगे-सम्बन्धी पर या किसी अन्य जन पर किसी प्रकार की विपदा आ गई है तो वह उस समय क्या करेगा या उस समय वह पहले किस तरफ़ मुड़ेगा? सामान्य उत्तर है कि निर्भर करता है वह विपदा किस प्रकार की है। यदि वह सामाजिक या व्यक्तिगत जीवन की है तो पहले तो वह उस विपदा से अंत तक लड़ता, जूझता रहेगा और अंततः उसके असफल परिणाम को देखते हुए वह उसी तरफ बढ़ चलेगा जिस ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा हूँ। जी हाँ वह सीधा आस्था और ईश्वर की शरण ले लेगा क्योंकि उसने अपने जीवन में शायद यही अनुभव किया हो कि किसी भी मुश्किल के असफल परिणामस्वरूप उससे निकलने के लिए अंततः यही एक मार्ग शेष रह जाता है। वह ताउम्र अपने वातावरण में यह देखता आया हो कि जिस समस्या, जिस मुश्किल को पार करना मनुष्य या विज्ञान के बस की बात नहीं उसे अंततः ईश्वरीय माध्यम से ही पार किया जा सकता है। यदि मनुष्य की यह विपदा स्वास्थय सम्बन्धी होती तो वह पहले स्वास्थ्य विभाग और उसके द्वारा प्रदत्त सुविधाओं की तरफ़ बढ़ेगा और यदि दुर्भाग्यपूर्ण वह वहाँ भी असफलता को ही प्राप्त करता है तो उसे पुनः ईश्वरीय शरण लेनी होगी क्योंकि यह बिल्कुल सत्य बात है कि जिसे लगभग सभी व्यक्तियों ने अपने जीवन मे अनुभव किया होगा कि जब डॉक्टरों द्वारा या किसी वैद्यों द्वारा यह कह देना कि ” हमारी तरफ से जो हो सकता था हमने किया अब ईश्वर ही कुछ चमत्कार दिखा सकते हैं”….इस तर्क के आधार पर मुझे हिंदी साहित्य के अग्रणी आलोचक, इतिहासकार, विद्वान आचार्य शुक्ल का एक कथन याद आ रहा है कि “ अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शरण के अलावा कोई और मार्ग न था”….। और जहां तक प्रश्न है आस्था और विज्ञान का तो, इस पर मेरा निजी विचार है कि इस लोक पर मनुष्य जाति ही सबसे बड़ी स्वार्थी और अवसरवादी जाति है। आस्था और विज्ञान जैसे दोनों रास्तों का चयन वह अपने परिवार, समाज, देश, विश्व और मानवता के हित के लिए उपयोग करती है। क्योंकि मानवजाति ने इन सबकी रचना अपनी सहूलियत के लिए की है। इस पर विश्वास करना न करना से लेकर उसका प्रचार प्रसार तक का काम भी वह अपने समय और आगामी समय के अनुसार करता है जिसमें बेहतर जीवन और समाज की कल्पना शामिल होती है और बहुत हदतक अपनी सहूलियत को बरकरार रखना भी होता है। बशर्ते वह सभी कार्य आदर्श स्थिति और नैतिकता को कायम रखने के सम्बंध में होने चाहिए और एक बेहतर समाज के निर्माण पर केंद्रीत भी । उन सभी कार्यों-संरचनाओं-निर्माणों का न्यायसंगत होना अतिआवश्यक है और कुछ हदतक यथार्थ भी….। लेकिन मैं इस बात से बिल्कुल और मजबूती के साथ इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ कि आस्था और विज्ञान की लड़ाई में अन्ततः आस्था ही जीतती है जिसका उद्धरण में ऊपर पेश कर चुका हूँ। इस आस्था को लोग कई और नाम से भी जानते हैं जैसे दैवीय शक्ति, अप्रत्यक्ष शक्ति, प्राकृतिक देन, अल्लाह-खुदा-रब-जीजस आदि या लोक में प्रचलित और भी कई तरह के नाम जो मनुष्य के सामर्थ्य से कहीं दूर होते हुए भी किसी न किसी तरह से इन सभी समस्याओं से मनुष्य को मुक्ति दिला देते हैं तब वह उस असीम-अपार-अकाट्य- शक्ति , ऊर्जा आदि जो भी हो उसका धन्यवाद करते हैं।
इस लेख को लिखने का मेरा मूल मन्तव्य स्पष्ट है कि किसी भी तरह की कठिन परिस्थितियों में हमें किस काम को वरीयता देनी चाहिए? क्या-क्या काम प्राथमिक है और क्या नहीं? क्या हमें सरकार के फैसलों को ही अंतिम और सही फैसला मान लेना चाहिए या उसके पार जाकर उसके अन्य विकल्प भी सोचने चाहिए? उन पर अपने मतों को प्रस्तुत करना और सलाह-मशविरा देना चाहिए?….। नए अवसर और विकल्पों का ढूंढना हमें नई तरक्कियों और नई ऊंचाइयों तक पहुँचाने में मददगार साबित होगा। और उनके ऐसा न करने से हम वहीं जड़ होकर जमे रह जाएंगे और कभी-भी ऐसी परिस्थितियों को पार करने के लिए हम सामर्थ्यवान नहीं हो पाएंगे। एक अन्य बात और कि जिन भी देशों में इन कोरोना योद्धाओं के प्रति इस तरह के कार्यक्रम किये जा रहे हैं उन्हें सही मायने में तब असली खुशी मिलेगी जब उन्हें इस महामारी से निपटने के अस्त्र-शस्त्र पर्याप्त मात्रा में मुहैया कराए जाएंगे। मेरे अनुमान से तब इस तरह के सम्मानीय कार्यक्रमों को करने की आवश्यकता है और तब इसका आनंद और कई गुना बढ़ जाएगा।
इससे पूर्व भी वैश्विक स्तर पर इन कोरोना योद्धाओं के प्रति सम्मान भाव और उत्साहवर्धन करने पर मेरा यही नजरिया था परंतु उस समय किसी प्रकार की लिखित प्रतिक्रिया देने में समर्थ नहीं था। परंतु आज मैं खुद को रोक नहीं पाया और चला दी अपनी कलम। इस लेख के माध्यम से मैं लोगों के मतों को जानना चाहता हूँ कि वह क्या सोचते हैं? और मेरे लेख को पढ़ने के बाद किस तरह की प्रतिक्रिया के साथ-साथ किस तरह के सुझाव-प्रस्ताव पेश करते हैं…..। वैसे मेरा इस लेख के माध्यम से किसी निजी विचारधारा और सरकार को ठेस पहुंचाने का कोई उद्देश्य नहीं। मैं केवल पहली बार इतने व्यापक तौर पर कोई लेख लिख रहा हूँ तो जो भी भूल चूक हो उसके लिए पहले से ही क्षमाप्रार्थी। इस लेख को जरूर पढ़े और आवश्यक सलाह-मशविरा दें जिसे सोचने समझने के बाद व्यवहार में लाने की भी पूरी कोशिश की जाएगी।
रोहित कुमार