डॉ. आंबेडकर और “सोशल डिस्टेंसिंग”

डॉ. आंबेडकर और “सोशल डिस्टेंसिंग” साहित्य जन मंथन

कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए आज “सोशल डिस्टेंसिंग” का जोर-शोर से प्रचार चल रहा है। दुनिया के कई देशों में जब कोरोना का खतरा बढ़ना शुरू हुआ तब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस वायरस के संक्रमण से बचने के लिए प्रारम्भ में “सोशल डिस्टेंसिंग” शब्द का इस्तेमाल किया। अब वह इस शब्द के प्रयोग से बच रहा है। जबकि भारत के लोगों के लिए यह शब्द पुराना है और अत्यधिक प्रिय है। 20 मार्च, 2019 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस शब्द को व्यापक तौर पर प्रचारित किया, तो अन्य लोग भी इसे दोहराने लगे।
भारत के परिप्रेक्ष्य में इस शब्द की ऐतिहासिकता का पड़ताल करने से पाते हैं कि इसका प्रयोग भले ही नया हो, लेकिन इसका अर्थ और इसकी परंपरा सदियों पुरानी है, जिसका शिकार सदियों भारत में अस्पृश्य रही दलित जातियों की पीढियां रही हैं। इन्हें न केवल सोसायटी से डिस्टेंस बनाने के लिए धार्मिक और शास्त्रीय रूप से आदेशित किया गया था, बल्कि सभी सार्वजनिक स्थलों जैसे विद्यालय, कार्यालय, औषधालय, जलाशय और न्यायालय आदि से दूरी बनाने के लिए सामाजिक रूप से प्रतिबंधित भी किया गया था। सड़कों पर चलने के लिए दोपहर को छोड़कर पूरा समय उनके साथ लॉकडाउन जैसा था। इन सबके पीछे उनके उपर थोपी गयी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था थी जिसके कारण वे समाज से बहिष्कृत होकर पूरा जीवन जीते थे।
अकाल व महामारी के समय दलित जातियों के प्रति भेदभाव चरम को प्राप्त कर लेता है। आज भी इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं। इसी तरह की घटना संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर के जीवन में भी घटित हुईं। अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं, “पिता जी की सेवानिवृत्ति के बाद हमलोग रहने के लिए सतारा आ गए, उन्हीं दिनों सतारा जिले के गोरेगांव में भारी अकाल पड़ा था। इस कारण सतारा में हमें चार वर्षों तक केवल चावल पर गुजारा करना पड़ा।” यह एक प्राकृतिक आपदा थी जो समय के साथ दूर हो गई, किन्तु आगे डॉ. आंबेडकर भारत की सबसे बड़ी बीमारी के विषय में लिखते हैं, “सतारा में आकर हमें यह अनुभव हुआ कि छुआछूत क्या है? पहली चीज जिसने मुझे झटका दिया कि कोई भी नाई हमारा बाल काटने के लिए तैयार नहीं होता था। पिताजी का सतारा से गोरेगांव ट्रांसफर हो गया। एक दिन मेरे भाई, मेरी बहन की बेटी और मैं जब सतारा से गोरेगांव स्टेशन पहुंचा तो पिताजी किन्हीं कारणों से हमें लेने नहीं आ सकें। पौन घंटे तक प्रतीक्षा करने के बाद स्टेशन मास्टर ने पूछा कि कहां जाना है? जाति क्या है? हमने बताया कि महार जाति के हैं। यह सुनते ही उसे झटका लगा और वह लगभग पांच कदम पीछे हटा।” अछूत होने के कारण यह सोशल डिस्टेंसिंग ही थी, जो उसने पीछे हटकर मेन्टेन किया। जाति जानने के बाद कोई बैलगाड़ी चालक जाने को तैयार न था, गाड़ी मेरे द्वारा हांकने की शर्त पर एक तैयार हुआ।” (आत्मकथा एवं जनसंवाद, पृष्ठ 121)
इस तरह डॉ. आंबेडकर अकाल जैसी महामारी और छुआछूत जैसी बीमारी का कटु अनुभव बचपन में ही ले चुके थे। नाई के द्वारा बाल ना काटना, स्टेशन मास्टर का पांच कदम पीछे हटना और गाड़ी वाले का बैलगाड़ी न हांकना, असल मायने में यह सब सोशल डिस्टेंसिंग ही था। यह सब घटनाएं बाबासाहेब के बचपन की हैं, जिनने उनके दिलो-दिमाग पर गहरा आघात किया।
आंबेडकर जब 1917 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर भारत आते हैं, तो स्कॉलरशिप के इकरारनामे के तहत बड़ौदा रियासत में सैन्य सचिव के पद पर नौकरी करने जाते हैं। अमेरिका से लौटा जब कोई उच्च शिक्षित नौजवान कुछ नया करने की सोच के साथ अपने ऑफिस जाता है तो वहां पर उनके सहकर्मियों और अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा जो व्यवहार किया जाता है, वह किसी के भी मन को व्यथित और आश्चर्यचकित कर देगा। यहां तक कि आंबेडकर के टेबल पर मामूली चपरासी भी फाइल दूर से फेंकते थे और उनके जाने के बाद वहां गंगाजल छिड़ककर पवित्र करते थे।
सामाजिक तिरस्कार के रूप में सिर्फ़ इतना ही नहीं बल्कि पूरे बड़ौदा रियासत में उन्हें रहने के लिए कमरा तक नहीं मिला, तो मजबूर होकर डॉ. आंबेडकर एक पारसी धर्मशाला में “एदलजी सोहराबजी” के नाम से रहने लगें। पारसियों को जब यह बात पता चली तो आगे क्या हुआ, यह बाबासाहेब के शब्दों में पढ़िए, “मैं भोजन आदि से निवृत्त होकर ऑफिस जाने के लिए होटल से बाहर निकला ही था कि हाथों में लट्ठ लिए पंद्रह-बीस लोग मुझे मारने के लिए वहां आए। उन्होंने पहले मुझसे पूछा ,’तुम कौन हो?’ मैंने उत्तर दिया, ‘हिंदू हूं’। परंतु इस उत्तर से उनका समाधान नहीं हुआ। उन्होंने तू-तू मैं-मैं करके कहा, ‘होटल से तुरंत निकल जाओ’। उस समय मेरे मनोधैर्य ने पूरा पूरा साथ दिया। मैंने उनसे निर्भयतापूर्वक 8 घंटे की मोहलत मांगी और उन्होंने वह दी। मैं दिन भर निवास के लिए स्थान प्राप्त करने की कोशिश करता रहा परंतु मुझे कहीं भी जगह नहीं मिली। मैं कई मित्रों से मिला। उन्होंने कोई न कई बहाने बनाकर मुझे टरका दिया और मैं नहीं सोच पा रहा था कि अब मुझे क्या करना चाहिए। आखिर मैं एक जगह नीचे बैठ गया। मेरा मन उद्विग्न हुआ और मेरे आंखों से आंसू बहने लगे” (जनता अख़बार, 23 मई 1930)।
डॉ. आंबेडकर सोसायटी के साथ-साथ दफ्तर में भी सोशल डिस्टेंसिंग के शिकार हुए। अपनी पड़ताल में वह पाते हैं कि यह एक मानसिक बीमारी है, जिसके आधार पर भारत की सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था टिकी है। इसी सड़ी-गली व्यवस्था के कारण अछूत लोग समाज से बहिष्कृत हैं, जिनसे गुजरने वाली हवा से भी लोगों को नफ़रत है। प्रायः इसलिए उन्हें गांव के दक्षिण में बसाया जाता है।
लारा स्पिनी की किताब “स्पेनिश फ्लू ऑफ 1918” से पता चलता है कि 1918 के दौरान भारत में स्पेनिश फ्लू आया, जिसकी चपेट में स्वयं गांधी भी थे। गांधी तो बच गए लेकिन सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की पत्नी और उनके घर के कई सदस्य इसकी भेंट चढ़ गये। क्योंकि उस समय मौजूद चिकित्सीय सुविधाएं आज की तुलना में बहुत कम थीं, अतः पौने दो करोड़ भारतीयों की इसमें मौत हो गई। इस विषय पर काम करने वाली मृदुला रमन्ना बताती है कि, “जिन महामारियों को नियंत्रित करने में औपनिवेशिक काल के अधिकारी नाकामयाब रहते थे, उसके प्रसार के लिए वो भारत की गंदगी को जिम्मेदार ठहराते थे।” शायद गंदगी की वजह से ही उस समय हैजा जैसी कई और बीमारियां फैलती थीं, जिसमें बड़े पैमाने पर लोगों की मौत हो जाया करती थी। वास्तविक रूप से बीमारी का कारण कुछ भी हो लेकिन दोष तो सबसे ज्यादा दलित और पिछड़े तबकों को ही दिया जाता है।
आंबेडकर यह जानते थे कि अछूतों का जातिगत पेशा, गंदगी और भुखमरी भारत की जाति व्यवस्था की ही देन है, जो उन पर थोपी गई है। अतः उन्होंने कहा, “अछूतों की मुक्ति का मार्ग उच्च शिक्षा, उच्च रोजगार और जीविका कमाने के उत्तम ढंगों में निहित है।” (बाबासाहब आंबेडकर लाइफ एंड मिशन, परिहार, डॉ. एम. एल, 2017) इस प्रकार आंबेडकर ने जातिगत पेशा का परित्याग कर स्वच्छता एवं स्वाभिमानपूर्वक जीवन बिताने के लिए अछूतों को प्रेरित किया। डॉ. आंबेडकर सोसायटी और सार्वजनिक स्थलों से सोशल डिस्टेंसिंग के कारणों की पड़ताल कर उसका हमेशा हमेशा के लिए इलाज करना चाह रहे थे।
कोलाबा जिले के प्रमुख अछूतों के प्रयत्न से महाड़ में 19 तथा 20 मार्च 1927 को आंबेडकर की अध्यक्षता में दलित जाति परिषद की बैठक हुई। डॉ. आंबेडकर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा,”ऐसे प्रयत्न करो, जिससे तुम्हारे बाल बच्चे तुम से अधिक अच्छी अवस्था में जीवन बिता सकें। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य के माता-पिता और पशु के माता-पिता में कोई अंतर नहीं रहेगा। हम तालाब पर इसलिए जाना चाहते हैं कि हम भी औरों की तरह मनुष्य हैं और मनुष्य की तरह जीना चाहते हैं। अछूत समाज हिंदू धर्म के अंतर्गत है या नहीं, इस प्रश्न का हमेशा हमेशा के लिए फैसला करना चाहते हैं।” (बाबासाहब आंबेडकर जीवन दर्शन, पूजारी, कुमार विजय, गौतम बुक सेंटर, 2010, पृष्ठ 75)
20 मार्च, 1927 को उन्होंने तालाब के पानी को छूकर अपने नागरिक अधिकार की स्थापित । सवर्णों ने प्रतिक्रिया स्वरूप अछूतों पर हमले किए। पंचगव्य (गाय का गोबर, मूत्र, दूध, दही, घी) और मंत्रोचार से तालाब को शुद्ध करने का ढोंग भी किया । भारत में अकाल को लेकर 1929 में डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटिश हुकूमत को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि, “भारतीय लोगों की दरिद्रता का दुनिया में कोई जवाब नहीं है। 19वीं सदी की पहली चौथाई जब भारत में ब्रिटिश राज्य एक स्थापित सच्चाई बन गया था, जिनमें पांच अकाल पड़े और अनुमानतः एक लाख जाने गयीं। सदी की दूसरी चौथाई में दो बार अकाल पड़े, जिनमें करीब चार लाख जानें गयीं। सदी की तीसरी चौथाई के दौरान छः बार अकाल और पांच लाख लोगों की मृत्यु हुई। सदी की आखिरी चौथाई में हम क्या पाते हैं कि अठारह बार अकाल पड़ा, जिसमें करीब ढाई लाख लोग मौत के मुंह में समा गए। इनमें वे करोड़ों लोग शामिल नहीं हैं, जो करीब एक साल सरकारी टुकड़ों पर जीवित रखे गए। लेकिन इस बढ़ती दरिद्रता में वह कौन लोग हैं, जो सबसे ज्यादा पीड़ित होते हैं? मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इसमें बहिष्कृत वर्गों का सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। सबसे ज्यादा लोग इसी वर्ग से मरते होंगे। अगर आप के अपने लोग हैं, तो इस हृदय विदारक सच्चाई से उदासीन नहीं रह सकते।” आज कोरोना के कारण लॉकडाउन में मजदूरों की स्थिति डॉ. अंबेडकर के वक्तव्य से मेल खाती है। दिल्ली व अन्य बड़े शहरों से गांव की ओर पैदल पलायन करने वाले लाखों मजदूरों के सामने एक तरफ कोरोना से मरने का खौफ है तो दूसरी तरफ भूख से लड़ने का संकट भी है। इनमें गांव से ताल्लुक रखने वाले अधिकतर कम पढ़े-लिखे मजदूर हैं, जो असंगठित भी हैं। इसलिए सरकार से मिलने वाली सहायता इन्हें नहीं प्राप्त हो सकती।
मजदूरों का सवाल भी डॉ आंबेडकर बहुत बेबाक़ी से उठाते थे। 1937 में मनमाड़ के मजदूरों की सभा में डॉ. आंबेडकर ने कहा, “ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद ये दोनों मजदूरों के दुश्मन हैं क्योंकि दोनों समता, स्वतंत्रता और बंधुता के खिलाफ हैं।” उनके इस कथन का प्रमाण वर्तमान में हमें उत्तर प्रदेश के बरेली जनपद में मिला जहां मजदूरों को बैठाकर उनके ऊपर आम के बागानों की तरह केमिकल का छिड़काव किया गया, जिससे कई बुरी तरह प्रभावित हुए।
आंबेडकर के अथक प्रयासों से दलितों को पृथक निर्वाचन का अधिकार मिला, जिसके खिलाफ गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। 24 सितंबर 1932 को डॉ. आंबेडकर एवं गांधी के बीच पूना पैक्ट हुआ। पूना पैक्ट को 27 सितंबर 1932 को ब्रिटिश सरकार की मान्यता मिली। उसी दिन पंडित मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक लिखित प्रस्ताव पास हुआ कि,”आज से हिंदू जाति में किसी को जन्म से अछूत नहीं समझा जाएगा और जिन्हें अब तक अछूत समझा जाता रहा है, उन्हें हिंदुओं की तरह ही तालाबों, स्कूलों, सड़कों तथा अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का उपयोग करने का अधिकार रहेगा। भविष्य में मौका मिलते ही इस अधिकार को कानून का स्वरूप दे दिया जाएगा।” आगे चलकर बाबासाहेब को संविधान सभा में प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी मिली। उन्होंने इस जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन करते हुए समता-स्वतंत्रता-बन्धुत्व और न्याय पर आधारित एक ऐसे संविधान की रचना की, जिससे देश का प्रत्येक नागरिक गरिमापूर्ण जीवन जी सके। संविधान में अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किया गया। इसमें से अनुच्छेद 17 ने अस्पृश्यता अथवा सोशल डिस्टेंसिंग की महामारी को हमेशा-हमेशा के लिए अंत कर दिया।

राष्ट्रपाल शंकर कदम
हिंदी महाविद्यालय हैदराबाद
वर्तमान में हिंदी अध्यापक के रुप कार्यरत हैं तथा शोधकार्य अंबेडकर मुक्त विश्वविद्यालय

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