दृढ़

दृढ़ साहित्य जन मंथन

सैलाब नहीं यह भगदड़ है
खाकी पर भारी खद्दड़ हैं
यहां चले कारवां गलियों में
ले उठा हाथ में दर्पण है

सत्ताधारी को जनता सब
ले करे आ रही अर्पण है
पैदल पग हैं, पग में पग हैं
जो करे आ रहे समर्पण है

हैं जाल घने हैं हाल बुरे
सत्ताधारी अब हाय घिरे
उलझाकर उलझे गैरों से
गैरों को दिखाते दर्पण हैं

यहां धर्म बांट और कर्म बांट
ईश्वर भी कर रहे छांट छांट
मनुष्य! हे बुरा रंग पीने वाले
जो कहे यह जन जन का दृढ़ है

पवन कुमार

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