एक अनुक्त दर्द

एक अनुक्त दर्द साहित्य जन मंथन

उसे बंदिशों में बाँध दिया गया..,
उसे बेड़ियों से जकड़ दिया गया,
लेते रहे परीक्षा पर परीक्षा….,
वो रोती बिलखती सिसकती रही,
ज़िन्दा लाश बनकर चलती रही,
सबने उसे अपने हिसाब से नाम दिया-
किसी ने भाग्य की मारी कहा…
किसी ने रूप की मारी कहा….
किसी ने रंग की मारी कह दिया…
तो किसी ने कुरूप भी कह दिया…,
इतना सुनकर भी वह है; ज़िन्दा…,
उसे एक बार मरने से डर है; लगता…,
वह बार-बार मरकर भी रहती है; ज़िन्दा…,
ज़नाब ऐसे जीना ही उसे सही है; लगता…!

ममता कुमारी चौहान

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