अज्ञेय कृत ‘एक बूंद सहसा उछली’ में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति का तुलनात्मक विश्लेषण

अज्ञेय कृत ‘एक बूंद सहसा उछली’ में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति का तुलनात्मक विश्लेषण साहित्य जन मंथन

यात्रा वृतांत का शुभारंभ भारतेंदु युग से ही माना जाता है, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘सरयू पार की यात्रा’ , ‘मेंहदावल की यात्रा’ ,’लखनऊ की यात्रा’ आदि लिखकर यात्रा साहित्य का सूत्रपात किया। आधुनिक हिंदी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय और नागार्जुन को ‘वृहत घुमक्कड़ त्रयी’ कहा गया है। इन्होंने स्वदेश व विदेश यात्राएं कीं और यात्रा वृतांत की श्रृंखला को अविरल बनाये रखा।

यात्रा वृतांत में लेखक अपनी यात्रा के दौरान हुए अनुभवों को लेखनी बद्ध करता है तथा किसी नगर विशेष के सौंदर्य का वर्णन करता है, किसी व्यक्ति विशेष को रेखांकित करता है तथा यात्रा के दौरान जिन व्यक्तियों के संपर्क में आता है तथा जिनसे परिचय होता है उनके विषय में स्वाभाविक एवं सहज ढंग से वर्णन करता है। भारतीय लेखक अज्ञेय जब विदेश में यात्रा करने गए तो उनका भारतीय साहित्यकार सजग हो गया, उन्होंने वहां की संस्कृति को ना केवल देखा बल्कि उसकी तुलना भारतीय संस्कृति से की। हमारा देश हर चीज में यूरोप का अनुकरण करता आया है इसलिए अज्ञेय ने यूरोप और भारत की समानता तथा समानता की तुलना अपने यात्रा वृतांत ‘एक बूंद सहसा उछली’ में की है। अज्ञेय वहां की मूर्तियों में, चित्रों में, साहित्य में ही दिलचस्पी नहीं ली बल्कि वहां के समग्र स्वरुप से परिचित होने की आकांक्षा भी रखी।

‘एक बूंद सहसा उछली’ में अज्ञेय की यात्राओं का समुद्रपारीय संसार है यह सारे यूरोप का यात्रा वृत्त है किंतु यह यात्रा भूगोल की जानकारी भर नहीं है बल्कि आगे के अनुसार उन स्थानों के प्रभाव और संवेदना का आकलन है। सागर में एक बूंद का सहसा उछलना और सूरज की रोशनी में रंग जाना यही परिदृश्य एक बूंद सहसा उछली का है। यह शीर्षक प्रतीकात्मक भी है मनुष्य का जीवन सागर में एक बूंद के समान ही है जो क्षण भर के लिए अपने अस्तित्व को उजागर करती है और फिर उसी ने विलीन हो जाती है। यूरोप की अमरावती रोमा से लेकर पतझड़ के चित्रों तक का वर्णन इस यात्रा वृतांत में करते हुए अज्ञेय ने कई शीर्षकों में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया है।

संस्कृति अत्यंत गंभीर भाव है वास्तव में संस्कृति संस्कार और परंपरा से जुड़ी होती है। सभ्यता और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं यदि सभ्यता शरीर है तो संस्कृति उसकी आत्मा है संस्कृति का अर्थ ग्रहण हम जीवन मूल्यों से करते हैं लेकिन यह भी सच है कि संस्कृति मूल्य अथवा मानयता से आगे आंतरिक आस्था पर निर्भर है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार “मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएं ही संस्कृति हैं।” भारतीय संस्कृति में कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों को महत्व दिया गया है। भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता है- संसार में जो भी सत्य और सुंदर हैं उसे ग्रहण कर अपना हिस्सा बना लेना और आगे बढ़ते जाना, यही कारण है कि विश्व की अनेक महान संस्कृतियां विलुप्त हो गयीं अब केवल उनके पुरावशेष मिलते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति निरंतर प्रवाहमान है, गंगा की निर्मल धारा की तरह, जिसमें अनेक धाराएं मिलकर एक रूप हो जाती हैं। भारतीय संस्कृति का अर्थ है विशालता और समन्वयता। सत्य, अहिंसा, परोपकार, त्याग, करुणा आदि जीवन के शाश्वत मूल्य इसमें समाहित हैं।

‘यूरोप की अमरावती रोमा’ शीर्षक में अज्ञेय यूरोप की धार्मिक आस्था की तुलना भारत की धार्मिक धार्मिक आस्था से करते हैं, वे फोन्ताना दी त्रेवी की तुलना दिल्ली के हड़ीया पीर से करते हुए यह बताना चाहते हैं की असुरक्षा का भाव कहीं भी आ सकता है इसलिए लोग जल में सिक्का उछाल कर मनोकामना करते हैं और यह मनोकामनाएं सबसे ज्यादा प्रेमी युगलों की होती हैं। साथ ही रोम के संग्रहालय की तुलना बनारस के घाट से करते हुए यह बताया कि धर्म की ओट में जो कला तथा श्रद्धा के नाम पर धर्म तथा कला दोनों की मिट्टी पलीत कैसे हुई है।

‘एक यूरोपीय चिंतक से भेंट’ में अज्ञेय ने भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए यह स्पष्ट किया कि भारतीय दर्शन संतुष्ट होने के लिए कहता है और यूरोपीय दर्शन लालसा की प्रवृत्ति की ओर दृष्टि करता है। यंत्रवत जीवन यूरोप से निकलकर भारतीय जीवन में भी आ गया है। अज्ञेय ने संसार की तीन प्रणालियों की चर्चा करते हुए भारत और यूरोप की संस्कृति का विवेचन किया है। पश्चिम की संस्कृति धर्म विश्वास प्रधान है, चीनी सांस्कृतिक परंपरा में धर्म विश्वास का कोई महत्व नहीं, वे चर्या को मुख्य मानते हैं यानी पश्चिमी संस्कृति ईश्वरपरक है और चीन की संस्कृति लौकिक और इन दोनों के बीच, भौगोलिक दृष्टि से भी भारतीय संस्कृति ऐसी है जो धर्म विश्वासमूलक भी है और लौकिक भी – “यूरोपीय कहते हैं, ‘तुम अमुक में विश्वास करो, फिर आचरण तुम्हारा चाहे ऐसा हो, चाहे वैसा हो।’ भारतीय कहते हैं, ‘तुम्हारे आचरण का नियम अमुक है, उसके बाद तुम विश्वास इसमें भी कर सकते हो और उसमें भी कर सकते हो और दोनों में एक साथ भी कर सकते हो।”

‘बालू की भीत पर’ में अज्ञेय ने हालैंड की यात्रा की है। बालू की भीत क्षणभंगुरता के लिए रूढ़ प्रयोग है लेकिन बालू की भित्ति पर खड़ा यह देश आज भी दृढ़ विश्वास के साथ भविष्य की ओर देख रहा है। लोक संस्कृति हमें गावों में ही देखने को मिलती है अज्ञेय हॉलेंड के प्रदेश वॉलेण्डाम के गांवों की लोक संस्कृति की तुलना भारत के गांवों से की है, लेकिन हमारे देश में गांव देखने जाने का विशेष उत्साह नहीं होता क्योंकि देश गांवों से भरा पड़ा है, पर यूरोप में जहां नागर अथवा औद्योगिक संस्कृतियों ने लोक संस्कृतियों को प्रायः नामशेष कर दिया है, परंपरागत ग्राम में जीवन की परिपाटी पर चलने वाले गांव दुर्लभ हो गए हैं और जहां भी ऐसी परिपाटियां थोड़ी भी अक्षुण्ण बनी हैं वहां उन्हें बनाए रखने का संगठित प्रयत्न होता है।

परंपराओं को बेच खाने की प्रवृत्ति का भी तुलनात्मक अध्ययन अज्ञेय ने ‘एक बूंद सहसा उछली’ में प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार लोग अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बेचकर धन अर्जित करते हैं और कर रहे हैं। विदेशी टूरिस्टों को अपनी धरोहर यानी वहां की पोशाकें, खड़ाऊं इत्यादि किराए पर दे कर खिचवाते हैं और मटरगस्ती करते दिखाए हैं यह प्रवृत्ति सारे पश्चिम में मौजूद है और कुछ कुछ हमारे यहां पर भी है।

‘संयुक्त राज्य : दो राजधानियां’ में अज्ञेय ने नई बसावट का तुलनात्मक अध्ययन किया है जनसंख्या वृद्धि के कारण ही लोगों के रहने की जगह कम पड़ जाती हैं और फिर पहाड़ियों को छील- काटकर सपाट बना दिया जाता है। भूतल की असमानता के कारण हर नगर के एक बड़े अंश का विहंगम दृश्य देखने को मिल जाता है लेकिन नई बसावट के लिए इस सौंदर्य को आज नष्ट कर दिया गया है। अज्ञेय लिखते हैं:- “असमतल भूमि या पानी का विस्तर या दोनों का योग नगर सौंदर्य का एक बहुत बड़ा अंग है। यह बात इटली के शहरों के बारे में कही जा सकती है, यही पैरिस के, यही बुडापेस्ट और सैनफ्रांसिस्को के और यही कदाचित नई दिल्ली के बारे में भी कही जा सकी होती यदि नई बसाई में उसकी सब पहाड़ियों को छील और काटकर सपाट ना कर दिया गया होता।”

‘ताल, तलहटी, स्रोत और स्रष्टा’ में अज्ञेय ने स्थापत्य कला की तुलना ‘एक बूंद सहसा उछली’ में कई जगह की है। रोम, हॉलैंड इत्यादि और इनके संग्रहालयों के संग्रह उत्कृष्ट नमूने हैं, एक ऐसी ही मूर्ति जो अतुलनीय है, वह बुद्धि प्रतिमा जो बर्हिगहम के संग्रहालय में है:- “गांधार शैली की काँसे की मानवाकार बुद्ध प्रतिमा मैंने दूसरी नहीं देखी और भारत के संग्रहालयों में कहीं भी इससे तुलनीय कोई मूर्ति नहीं है। बुद्ध की प्रस्तर मूर्तियां अवश्य इससे अच्छी हैं लेकिन काँसे की ऐसी त्रुटि विहीन भव्य मूर्ति नहीं।” इसी के अंतर्गत अज्ञेय रोमिक इमारतों की विलुप्त होती सभ्यता के पुरावशेष को संरक्षित करके रखने की तुलना बनारस के गंगा तट से करते है। यदि हम अपनी धरोहर की चिंता करते हैं, उनका संरक्षण करते हैं तो यह देश के जीवन को संपूर्णतर बनाता है और उसकी सांस्कृतिक गहराई को भी बढ़ाता है। विशेष रुप से ऐसे नगर, जो ना केवल ऐतिहासिक महत्व रखते हैं बल्कि किसी विशेष स्थापत्य शैली को उदाहृत करते हैं जरूर सुरक्षित रहने चाहिए और यह आवश्यक नहीं है कि इस तरह के ऐतिहासिक संरक्षण का काम केवल केंद्रीय शासन या प्रादेशिक शासन ही करे। नागरिक शासन स्वयं इसका प्रबंध कर सकता है और करेगा तो सरकार से सहयोग भी पा सकेगा।

संस्कृति की पहचान यह है कि लोग अपने फुरसत के समय का क्या उपयोग करते हैं, दूसरी यह है कि उनके सामूहिक मनोरंजन क्या रूप लेते हैं। अज्ञेय ने ‘बीस हजार राष्ट्र कवि’ में वेल्स की यात्रा के दौरान संस्कृति की तुलना करते हुए बताया कि वेल्स की संस्कृति बहुत ही विशिष्ट है। यहां की कुल जनसंख्या बीस लाख है और उसका एक प्रतिशत यानी बीस हजार लोग राष्ट्रीय उत्सव ‘आइस्तेद्वद्व’ के कार्यक्रम में उपस्थित होते हैं, अपनी भाषा के काव्य के प्रति बालकों से लेकर वृद्ध तक मे समान उत्साह वेल्स के लोगों में है।

‘नीलम का सागर, पन्ने का द्वीप’ में अज्ञेय ने डब्लिन की कुरूपता और गंदगी की तुलना ‘हावड़ा’ जाने पर जो बस्ती देखने को मिलती है, से की है। वे कहते हैं:- “डब्लिन का केंद्र नदी के किनारे बसा है और नदी तथा उसके पुल उसकी मुख्य शोभा हैं। शोभा को देखना चाहिये सूंघना नहीं चाहिए।” पैरिस में सैन नदी के किनारे भी कुछ कुछ ऐसे ही हैं लेकिन डब्लिन के वातावरण में कुछ अधिक आत्मीयता और हार्दिकता है।

‘धर्म विश्वासों की गोधूलि’ में अज्ञेय ने भारतीय और पाश्चात्य के धर्म विश्वासों की तुलना की है। जब से मानव ने लोहे के अस्त्र बनाना सीखा और उसके सहारे वन जंतुओं से सुरक्षा प्राप्त की तभी से लोहे की शक्तियों में धार्मिक विश्वास रूढ़ हो गया। आयरी उपकथाओं में परियों के जादू से बचने के लिए लोहे का उपयोग लोक विश्वास का एक अभिन्न अंग है। घरों के द्वार पर घोड़े की नाल टांगने का कारण भी उसमें लोहे का होना है। गर्भवती स्त्रियां सिरहाने लोहे की छुरी या अन्य वस्तु रखतीं हैं क्योंकि उनका धार्मिक विश्वास है कि इसमें माता और शिशु दोनों सुरक्षित हैं। धर्म विश्वासों की गोधूलि में अज्ञेय के संकेत आधुनिक सन्दर्भ में हैं जब गायें शहर से दूर, बिजली से जगमग डेरियों में दुही जातीं हैं और आंगन में गाय स्थान पर मोटर रंभाती है, तब गोधूलि का कोई अर्थ नहीं गिना जाता है। फिर भी जैसे आदिम विश्वास नए पूर्वाग्रह ओढ़ लेते हैं, वैसे ही पुरानी शब्दावली भी नए अभिप्राय ओढ़ती चलती है।

‘बीसवीं शती का गोलोक’ में अज्ञेय ने स्वीडन और भारत में गायों के प्रति रवैये के तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है। स्वीडन की कुल भूमि का आधे से अधिक, वन -भूमि या चरागाह है किंतु हमारे यहां तो गे खुली घूमती हैं और वो भी सड़क पर कचरा कहती हुई जबकि गे को हम ‘माता’ कहते हैं और उसकी पूजा करते हैं। स्वीडन में देश की बारह प्रतिशत भूमि गोचर भूमि है और वह शहरों से अलग ही रखी जाती है। वहां गायें स्वच्छन्दता और स्वच्छता से रहती हैं और वहीं दुही जाकर दूध शहरों में पहुँचता है परंतु अपने देश मे गोधन सम्बन्धी चर्चा की हालत ही बहुत खराब है। अज्ञेय लिखते हैं :- “वास्तव में जब तक हमारी गो-सम्बन्धी भावना में परिवर्तन नहीं होता तब तक तक स्थिति में कोई सुधार भी नहीं हो सकता और उस दिशा में किया जानेवाला सब प्रयत्न बालू की दीवार है। गोधन का सम्वर्द्धन तो तभी हो सकता है जब हम उसे धन मानें; अर्थात भावना को रक ओर रखकर उसे आर्थिक नियमों के अधीन मान लें।”

‘लोकोत्तर’ में अज्ञेय ने स्वीडन के लोक जीवन का केंद्र सिलियान झील के तट पर बसा, रात्विक के आसपास जंगलो की बस्ती के लोक संस्कृति के अवशेषों के संरक्षण की तुलना भारत के पहाड़ी मेलों से की है। लकड़ी, तांबा या मिश्र धातु की अनेक लोक शिल्प की वस्तुएं इस स्थानीय पैंठ या मेले में बिकने आतीं हैं उसका सहज देहातीपन और रंगीनी भारत के पहाड़ी मेलो जैसी ही है।

‘सागर कन्या और खग शावक’ में अज्ञेय ने भारतीय और पश्चिमी के सुंदरता की स्वच्छता और सफाई की तुलना की है। कोपनहेगन यूरोप के उन नगरों में से है जिनकी सुंदरता का आधार मुख्यतया उनकी सफाई में है। अज्ञेय कहते हैं :- “सागर तट के उल्लेख से जो चित्र आंखों के सामने आता है, डेनमार्क का अधिकांश तट वैसा नहीं है, बल्कि एक उथली स्वच्छ झील का तट ही जान पड़ता है।°°° पूर्वी बंगाल में जो ‘हाओर’ पाए जाते हैं – ‘हाओर’ सागर का ही अपभ्रंश है – वैसा ही जल प्रसार यह भी है – अंतर बस इतना ही है कि इसकी स्वच्छ पारदर्शी नीलिमा हमें तल की चट्टानें भी देख लेने देती है।”

‘यूरोप का स्नायु-केंद्र : बर्लिन’ में अज्ञेय ने बर्लिन के विभाजन की स्थितियों का चित्रण किया है। पश्चिमी बर्लिन जो धैर्य युक्त है और पूर्वी बर्लिन में कसमसाता आतंक छाया हुआ है और ऐसे में पूर्वी बर्लिन में ज्यादा चहल पहल नहीं है लेकिन पूर्वी बर्लिन में एक मात्र ऐसा स्थान है जहां शासन और शासको के बारे में मजाक सुना जा सकता है, वह है ‘हायो’ का नाइट क्लब। ‘हायो’ के नाइट क्लब की तुलना अज्ञेय ने भारत मे भांड जैसे कार्यक्रम से की है जिसमे शासक वर्ग पर व्यंग्य किये जाते है पर सब इसका आनंद लेते है निंदा नहीं करते।

‘प्राची-प्रतीची’ में अज्ञेय ने कुछ बिंदुओं द्वारा भारतीय और पश्चिमी दर्शन, नीतिशास्त्र, सभ्यता और संस्कृति का अन्वेषण मूल रूप में प्रस्तुत किया है। जैसे:-
१. यूरोप की परम्परा में ‘स्वतंत्रता’ व्यक्ति की आत्मनिर्भरता रही है, चीन में परिवार की आत्मनिर्भरता और भारत में ग्राम समाज की स्वतः सम्पूर्णता। किंतु इसके विपरीत, परम्परा से यूरोप का नीतिशास्त्र संपृक्ति का रहा है, चीन का सन्तुलन का और भारत का सन्यास अथवा अनासक्ति का।
२. पश्चिमी दृष्टि सभ्यता के नाम पर राग को नियंत्रित करना चाहती है और जीवन प्रेम के नाम पर मृत्यु की चेतना को दबा देना चाहती है जबकि भारतीय दृष्टि राग को पूजा के आसन पर प्रतिष्ठित करती है और मृत्यु को गहरे सत्य के रूप में स्वीकार करती है।
३. पश्चिम के लिए अर्थ ज्ञान में है और ज्ञान एक सीधी है जबकि पूर्व के लिए अर्थ ज्ञाता में है और ज्ञान एक फलता हुआ वृक्ष है। आप जिस डाल पर हों उसी वृक्ष पर रहते हैं।
४. पश्चिमी जन असहिष्णुता से आरम्भ करता है और अनास्था तक पहुँचता है लेकिन पूर्वी जन तटस्थता से आरम्भ करता है और ज्ञान तक पहुँचता है।
५. पाश्चात्य संस्कृति का केंद्र है ‘मैं’ , चीनी संस्कृति के मूल में ‘हम’ का भाव है किंतु भारतीय संस्कृति का मूल स्त्रोत ‘मैं’ और ‘हम’ की एकात्मता का बोध है।
६. पश्चिम का काल बोध एकांगी है। अर्थात उसे तात्कालिकता और त्वरा का बोध तो है किंतु काल की व्यापकता और धृति का नहीं, भारत को कल विस्तार का बोध है लेकिन उसकी तीव्रता का नहीं। दूसरी और भारत का देश बोध एकांगी है। अर्थात उसे निकट दैशिक परिस्थिति का बोध तो है किंतु देश के विशाल प्रसार का नहीं।
७. यूरोपीय व्यक्ति क्षण में जीता है जबकि भारतीय व्यक्ति अनंतकाल में रहता है।
८. पश्चिम अपने सम्मुख पहाड़ देखता है और शिखर तक रास्ता काटने लगता है ताकि पर्वत पर जयी हो सके किंतु पूर्व के सम्मुख सागर है, वह रस्सी डालकर गहराई नापता है। ग्रहरै जान ली जाती है लेकिन सागर अज्ञात रह जाता है।
९. पश्चिम की प्रतिभा कल्पना में है। उसकी प्रत्येक परिभाषा परिधि का निर्माण करती है। ‘अमुक क्योंकि अमुक है, इसलिए उससे इतर नहीं हो सकता’ , यह उनकी यात्रा का अंत है जबकि पूर्व की प्रतिभा विस्तार में है। ‘अमुक क्योंकि अमुक है, इसलिए अमुक से इतर और सब कुछ हो सकता है’ ,यह उसकी यात्रा का आरम्भ है।

अतः कहा जा सकता है कि अपनी विदेश यात्रा के दौरान लिखा गया अज्ञेय यह वृतांत हिंदी साहित्य की एक प्रमुख कृति है, जिसमें लेखक यूरोप का केवल चित्र नहीं खींचा है बल्कि वहां जो भी देखा उसकी तुलना भारत, यदि यहां भी कहीं पर वैसा ही स्थित है, से की है। ‘एक बूंद सहसा उछली’ केवल मार्गदशिका पुस्तक नहीं है यह भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति, सभ्यता को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत करती है। पश्चिमी और भारतीय धर्म विश्वासों, लोक संस्कृति, स्थापत्य कला, क्षेत्र विशेष और स्थान विशेष, दर्शन, कला, साहित्य की समानता और असमानता का निरीक्षण लेखक करता है और उनका विश्लेषण अपने यात्रा वृतांत में करता चलता है।

सन्दर्भ

१. एक बूंद सहसा उछली, सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय, भारतीय ज्ञानपीठ, आठवां संस्करण-२०१४.
२. अशोक के फूल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, लोकभारती प्रकाशन, इकत्तीसवा संस्करण-२०१३.

कमलेश, पीएचडी शोधार्थी (हिंदी विभाग)
दिल्ली विश्वविद्यालय

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