मराठी के आधुनिक नाटककारओं में शीर्षस्थ विजय तेंदुलकर अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण नाटककार हैं। 50 से अधिक नाटकों के रचयिता विजय तेंदुलकर ने अपने कथ्य और शिल्प की नवीनता से निदेशकों और दर्शकों दोनों को बराबर आकर्षित किया, पूरे देश में उनके नाटकों के अनुवाद एवं मंचन हो चुके हैं । मराठी साहित्य का नवोदय काल बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से प्रारंभ होता है इसी समय मराठी साहित्य में आधुनिक गद्य का प्रयोग शुरू हुआ। बंगाल रंगमंच भी अंग्रेजी प्रभाव से विकसित हुआ है किंतु मराठी साहित्य ने शीघ्र ही अपना स्वतंत्र साहित्य और रंगमंच बना लिया।
विजय तेंदुलकर ने समाज के संवेदनशील और विवादित माने जाने वाले विषयों को अपनी लेखनी आधार बनाकर 1950 के दशक में आधुनिक मराठी रंगमंच को एक नई दिशा दी और शहरी मध्यवर्गीय छटपटाहट को बड़ी तीखी जवान में व्यक्त किया, वे मराठी रंगमंच की स्वर्णिम परंपरा के कोतवाल थे जो जिंदगी को सच्चाई की स्याही में डुबोकर लिखते थे उनकी सोच अलहदा थी और उनके विचारों का प्रभाव ऐसा था मानो वे हरदम सच पर सवार होना चाहते थे तथा नाटकों के माध्यम से दर्शकों को झकझोर कर बताना चाहते थे कि अपनी सोच का दायरा बढ़ाओ और सच्चाई के लिए ढेर सारी जगह रखो।
घासीराम कोतवाल में घासीराम और नाना फड़नवीस का व्यक्ति संघर्ष प्रमुख होते हुए भी तेंदुलकर ने इस संघर्ष के साथ-साथ अपनी विशिष्ट शैली में तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक की स्थिति का मौलिक चित्रण किया है सत्ताधारी वर्ग और जनसाधारण की संपूर्ण स्थिति पर समय और स्थान के अंतर से कोई वास्तविक अंतर नहीं पड़ता विजय तेंदुलकर राजनीति की खूब समझ रखते थे और सामाजिक समस्याओं को बंधन मुक्त होकर लिखना जानते थे बिल्कुल एक रिवेलियन की तरह समाज की रूढ़ियों को तोड़ने की बात अपने नाटकों में कर जाते हैं तथा सच का आईना दर्शकों को दिखा देते हैं।
अनुराग तागड़े के शब्दों में:- “मराठी रंगमंच एक सही मायने में वे कोतवाल ही थे जिन्होंने यह सिखाया की नाटक अगर समाज की समस्याओं का मंचन सही तरीके से करेगा तो वह दर्शकों को ज्यादा पसंद आएगा”
नाटक साहित्य में भारतेंदु तथा प्रसाद के पश्चात विजय तेंदुलकर का स्थान विशेष महत्वपूर्ण है। उन्होंने विशाल अर्थ में नाटक एवं रंगमंच को एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया विजय तेंदुलकर के नाटकों में स्थिर पात्र गतिशील पात्र व्यक्ति प्रधान पात्र मनोवैज्ञानिक पात्र गांधीवादी पात्र आदि का चित्रण किया है तेंदुलकर जी ने अपने कुछ नाटकों में मिथकीय पात्रों का संयोजन किया है उन्होंने वर्तमान अस्तित्व को प्रकट करने के लिए पौराणिक कथाओं एवं प्रतीकात्मक रुप से प्रकट किया है।
स्त्री पुरषों के योन संबंधों का संकेत तेंदुलकर के नाटकों में यथार्थ रूप से प्रकट हुआ है स्त्री को भोग की दृष्टि से देखा जाता है। घर केभीतर की स्त्री हो या बाहर की पुरुष की दृष्टि में कोई मूल्यात्मक अंतर नहीं। घासी राम कोतवाल नाटक की ललिता गौरी नारी पात्र सभ्यता की सफ़ेद पोसी करने वाले पुरुष की विकृति का शिकार बनी हुई है अत्याचार से पीड़ित है यह हमारे भारतीय समाज की कथा विडंबना को उजागर करती है।
विजय तेंदुलकर मनोविश्लेषणात्मक लिखते थे लेकिन वे मनोविच्छेद नहीं करते,मन में जो है वह कभी-कभी बाहर कैसे आता है वह भाषा चित्र के द्वारा कभी गंभीर कभी हास्य व्यंग्य के द्वारा बताते हैं। मध्य वर्गीय स्त्री पुरुष के तनावपूर्ण संबंध विवाह पूर्व या विवाहब्रह्य समन्वय सीधे सरल संवाद द्वारा चित्रण करते हैं ।
आधुनिक दौर के प्रमुख भारतीय नाट्य लेखकों में विजय तेंदुलकर एक ऐसा नाम है जिन्होंने अपने नाटकों के द्वारा हिंसा ग्रस्त समाज की नंगी सच्चाइयों को पेश कर भारतीय रंगमंच को नया समाज दिया उनकी रचनाओं में समाज के विरोधाभासों और विसंगतियों को सशक्त ढंग से उठाया गया है।
अरविंद गौंड के अनुसार:- “तेंदुलकर की समकालीन समाज की समस्याओं पर गहरी पकड़ थी उन्होंने मराठी रंगमंच को अपने नाटकों के जरिए एक नया व्याकरण दिया”
विजय तेंदुलकर के नाटकों में प्रयुक्त संवाद को पृथक पृथक अटेंड करने के पश्चात हम कह सकते हैं कि उनके नाटकों में प्रीत संवाद सुष्ठु, सजीव, स्वाभाविक, जिज्ञासावर्धक, प्रसंगानुरूप, चुस्त, चुटीले, सार्थक, सरल,संक्षिप्त, पत्रों की आयु तथा मनःस्थिति के अनुरुप कथानक एवं पात्रों के चारित्रिक विकास दार्शनिकता की व्याख्या करने वाले एवं हास्य व्यंग्यात्मक रुप की रक्षा करने में सहायक सिद्ध होते हैं।
तेंदुलकर जी ने पारंपरिकता से हटकर अपने नाटकों में संवाद की दृष्टि से नूतन प्रयोग किए हैं। जिन्होंने लंबे दीर्घ अकारीय संवादों का अनुपम समान जज्बा दिखाया है। नाटक के लघु अकारीय संवाद आधुनिक के यथार्थ जीवन शैली से जुड़े हुए हैं जो नए अनुशासन और संतुलन की खाल उड़े हुए काफी पैने और तीखे हैं। दीर्घ अकारीय संवाद भावात्मक दृश्यों को रूपायित करते हैं।
विजय तेंदुलकर ने युगीन समस्याओं को अपने नाटकों में उद्देश्यों के रूप में प्रस्तुत किया है ऐतिहासिक एवं पौराणिक प्रवेश एवं पात्रो तथा कथा वस्तु के माध्यम से समकालीन समस्याओं का उद्घाटन किया है, समकालीन समस्याओं को सफलतापूर्वक उठाया है। तेंदुलकर जी के नाटक यह प्रदर्शित करते हैं कि आजादी के बाद भारतीय समाज में सामाजिक कुरीतियों और जटिल अर्थव्यवस्था से कई सामाजिक समस्याएं जन्म ले रही हैं यह अपने नाटक के विषय में कहते हैं:- “घासी राम कोतवाल ऐतिहासिक नाटक नहीं है वह एक नाटक है सिर्फ नाटक इस नाटक की सामग्री का कच्चा मसाला इतिहास से बटोरी गई है इतिहास का क्षीण-सा आधार अवश्य लिया गया है पर उसके आगे नाटक का इतिहास से कोई संबंध नहीं है।”
तेंदुलकर जी ने अपने नाटकों में स्वातंत्रयोत्तर भारतीय समाज और उसके पारस्परिक संबंधों का सूक्ष्म तथा जटिल स्वरुप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उन्होंने इस तथ्य को भी उजागर किया है कि समाज में ऐसी समस्याएं उठ खड़े होने के बाद ही आम आदमी को जीवित रहने के लिए अनिवार्य रूप से कठोर संघर्ष करना पड़ रहा है यही समस्याएं उन्होंने अपने नाटक घासीराम कोतवाल नाटक के माध्यम से यथार्थ के रुप में सामने रखी हैं। इस संदर्भ में डॉक्टर जब्बार पटेल लिखते हैं:- “घासीराम हर काल और समाज में होते हैं और उसका और उस समाज में उसे वैसा बनाने वाले और बनाकर मौका देखकर उसकी हत्या करने वाले नाना फड़नवीस भी होते हैं वो बात तेंदुलकर जी ने अपने ढंग से प्रतिपादित की है, उन्होंने समकालीन मनुष्य की जीवनगत समस्याओं, उसके संघर्ष को यथार्थ होते जा रहे जीवन मूल्यों को उद्देश्य के रूप में प्रकट किया है। उन्होंने समकालीन मानव की निराशा, घुटन, कुंठा, त्रासदी का यथार्थ वर्णन किया वहीं दूसरी ओर सामाजिक दायित्वों का निर्वाह कर मानव के बदलते मानव मूल्यों और प्रतिमानों को रूपायित करने का यशस्वी प्रयास किया है। वर्तमान सामाजिक जीवन में लाचारी, बेरोजगारी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, विलासिता, मंहगाई, कालाबाजारी, घूसखोरी, अवसरवाद, भाई-भतीजावाद मानव को अपाहिज बनाने वाली व्यवस्था,मनुष्य का विघटन, स्वार्थ पूर्ण राजनीति यंत्र का पुर्जा बने गया मानव आदि समस्याओं को अपने नाटकों के उद्देश के रूप में प्रस्तुत किया है
तेंदुलकर जी अपने नाटक में विघटित होते जा रहे जीवन मूल्य तथा स्त्री पुरुषों के बदलते हुए संबंधों पर भी प्रकाश डाला है, बदलते जीवन मूल्यों के साथ प्रेम का स्वरुप और परिभाषा भी बदल रही है तेंदुलकर जी का नारी के प्रति दृष्टिकोण भारतीय संस्कृति में पला दिखाई देता है अन्याय अत्याचार एवं बलात्कार के संदर्भ इनके कई नाटकों में उभरते हैं वहां सर्वत्र लेखक नारी के प्रति सहानुभूतिशील दिखाई देता है इस पर स्वयं विजय तेंदुलकर लिखते हैं:- “मेरी निगाह में घासीराम कोतवाल एक विशिष्ट समाज की ओर संकेत करता है वह समाज स्थिति…स्थल कालातीत है इसलिए घासीराम और नाना फड़नवीस भी स्थल कालातीत है। समाज की स्थितियां उन्हें जन्म देती हैं, देती रहेंगीं।”
भ्रष्टाचार की समस्या जो आज की समस्याओं में सर्व प्रमुख है और भारत को यह समस्या विरासत में मिली है इस समस्या ने भारतीय समाज में अपनी जड़े अत्यधिक मजबूत की हैं राजनीतिक सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन में यह समस्या पूरी तरह फैल चुकी है। भ्रष्ट व्यक्ति अपने साथ-साथ समाज को भी पतनोन्मुख बनाता है इस तरह का भ्रष्टाचार किस तरह न्यायालयी, पुलिस व्यवस्था को भी भ्रष्ट कर रहा है इसी का चित्रण विजय तेंदुलकर ने अपने नाटक घासीराम कोतवाल में किया है कानूनी क्षेत्र का मानवीय पहलू यथार्थ मनुष्य की ही बनाई हुई कानून व्यवस्था के सामने से प्रश्नचिन्ह बनता नजर आता है समाज के जाने-माने प्रतिष्ठित जो सज्जनता का स्वांग रचकर समाज की ठेकेदारी करते हैं ऐसे प्रतिष्ठित अपराधियों का भंडाफोड़ अपने नाटक में करते हैं। इस पर राजेंद्र नाथ कहते हैं:- “यहां सारा बल एक पतनशील और विलास प्रिय समाज पर है जो घासीरामों को जन्म देता है और उसकी हत्या भी करता है और साथ ही तानाशाही को एक दूसरे ही रूप में सहने के लिए तैयार भी हैं अगर उसके उल्टे-उल्टे मूल्यों को खरोच ना लगे।”
तेंदुलकर जी के नाटकों की भाषा शैली उनकी एक अनुपम उपलब्धि है उन्होंने अपने नाटक में जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले पात्र को लिया है उसी के अनुरूप भाषा का प्रयोग किया है इसका प्रमुख उदाहरण है नाना फड़नवीस का बयान:- “अपने हाथ से तो हमने कभी मक्खी तक नहीं मारी और पेशवा के प्रधान के खिलाफ इल्जाम लगाने से पहले तुम्हें सौ बार सोचना चाहिए।”
विजय तेंदुलकर ने अपने नाटक में यथार्थ परक तथ्यों को प्रस्तुत किया है नाना अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए घासी राम को शहर कोतवाल नियुक्त करता है और घासीराम के कंधे पर बंदूक रखकर राजनीतिक कुचग्र रचता है, उदाहरण:- ” जाS घसियारे… तुझे बना दिया हमने कोतवाल! जाS नंगा होके नांच, बजा गाल। मगर इस नाना की चाल तू नहीं जानता, अरे मरदूद हमने भरी है बंदूक राजनीति वाली दुनाली… हमारी ग़लतियां भले तुम्हारे नाम जमा होगीं हम महफूज रहेंगे बदनामियां तुम्हारी होगी करने को हम भुगतने को हमारा कोतवाल।”
विजय तेंदुलकर नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार, ललित निबंध लेखक, अनुवादक, संपादक और ना जाने क्या-क्या बहुमुखी प्रतिभा शब्द भी कम है। उनका नाटक घासीराम कोतवाल का छह हजार से ज्यादा बार मंचन हो चुका है इतनी ज्यादा बार किसी भी और भारतीय नाटक को नहीं देखा गया, बदलते समय के साथ हर साहित्यिक कृति के संदर्भ धुंधलाने लगते हैं बदलते वक्त के मुताबिक उनकी प्रासंगिकता कम ज्यादा हो जाती है,विजय तेंदुलकर का नाटक आज की तारीख में भी पूरी तरह से प्रासंगिक है। बिना एक शब्द की काट छांट किए बगैर,यह तथ्य से बात साबित करने के लिए काफी है। घासीराम कोतवाल नाटक आज के संदर्भ में उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उस समय था।
पवन कुमार