हाशिए का समाज एक व्यापक अवधारणा के रूप में हमारे सामने मौजूद है । हिंदी साहित्य के कई विचारकों ने इस पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है चौथीराम यादव ने अपनी पुस्तक ‘उत्तरशती के विमर्श और हाशिए का समाज’ में उल्लेख किया है कि “हाशिए के समाज में दलित, आदिवासी, स्त्रियाँ, किसान, मजदूर आदि की गणना की जाती है, जिनकी आबादी कुल आबादी की तीन-चौथाई होती है ।”1 चौथीराम यादव ने अपनी इसी पुस्तक में आबादी के लिहाज से हाशिए के समाज को बहुसंख्यक समाज के रूप में परिभाषित किया है । संख्या के लिहाज से ज्यादा होते हुए भी उनका विकास नहीं हो पा रहा है, जबकि दूसरी तरफ संख्या की दृष्टि से कम होते हुए भी इस देश को चला रहे हैं ।
दीपक कुमार और देवेन्द्र चौबे द्वारा संपादित पुस्तक ‘हाशिए का वृतांत : स्त्री, दलित और आदिवासी समाज का वैकल्पिक इतिहास’ पर गौर करें तो हम पाएंगे कि स्त्री, दलित और आदिवासी समाज को लगातार प्रताड़ित किया गया है, उन्हें उभरने के, अपना विकास करने के पर्याप्त अवसर नहीं दिए गए हैं । ऐतिहासिक काल से लेकर वर्तमान समय तक उनकी अवहेलना की गयी है और उन्हें अंधेरे कोने में धकेल दिया गया है ।2
दिनेश कुमार ‘दिव्यांश’ ने 2019 में ‘वर्तमान परिदृश्य और हाशिए का समाज’ पुस्तक संपादित की है । इसमें उल्लेख किया गया है कि “भारतीय समाज की मुखधारा के अंदर और बाहर दो स्तर पर लोग हाशिए का जीवन व्यतीत कर रहे हैं । इसमें मुख्यधारा के अंदर के लोग, समूह और समुदाय हैं । घरेलू नौकर, स्वरोजगार में लगे लोग, बेबस स्त्रियाँ और खेतिहर मजदूर तथा दलित, शूद्र एवं मुकयाधारा के बाहर के लोगों में आदिवासी आदि मुख्यधारा से कटे हुए हाशिए पर हैं । दलित समाज में उनकी स्थित बहुत ही दयनीय है । साथ ही ‘स्त्री समाज’ भी पारिवारिक और सामाजिक जीवन की मुख्यधारा के अंदर रहते हुए हाशिए की जिंदगी जीने के लिए विवश हैं ।”3 उमाशंकर चौधरी द्वारा संपादित पुस्तक ‘हाशिए की वैचारिकी’ में भी दलित, आदिवासी, स्त्री और मुस्लिम समुदाय आदि के संबंध में गहराई से विमर्श किया गया है ।
इस प्रकार से हम यह देख सकते हैं कि ‘हाशिए का समाज’ कहने से एक व्यापक स्वरूप हमारे सामने आ जाता है, जिसमें हम दलित, आदिवासी, महिलाओं, मजदूर, किसान, घरेलू नौकर आदि को सम्मिलित कर सकते हैं । इन्हें सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से प्रत्येक काल में प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है ।
हिंदी साहित्य के आधुनिक हिंदी कवि मुक्तिबोध के काव्य का सौंदर्यबोध हाशिए के समाज से ही ग्रहण किया हुआ प्रतीत होता है । मुक्तिबोध ऐसे कवि के रूप में दिखलाई पड़ते हैं, जिन्होंने सीधे-सीधे हाशिए के समाज का उल्लेख किए बिना भी अपनी कविताओं में अनेक स्थलों पर समाज में पीड़ित लोगों को अपनी लेखनी का माध्यम बनाया है ।
यह सर्वविदित है कि मुक्तिबोध के काव्य में वर्ग-भेद सर्वोपरी है, जिसके चलते उनके काव्य में दूसरी चीजें अल्प मात्रा में आयी हैं । दलित जीवन के संदर्भ में बात की जाए तो मुक्तिबोध की कविताओं के बीच में ही कहीं-कहीं पर छिट-पुट पंक्तियाँ देखने को मिलती हैं । मुक्तिबोध ने दलित जीवन को केंद्र में रखकर कोई कविता लिखी हो ऐसा कहना मुमकिन नहीं है । मुक्तिबोध यकीनन प्रगतिशील विचारों के कवि हैं और समाज में सभी मानवों को सुखी, सुंदर व शोषणमुक्त देखने के पक्षधर हैं, उदाहरण के लिए हम ‘चकमक की चिंगारियाँ’ कविता की इन पंक्तियों को देख सकते हैं-
समस्या एक-
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुंदर व शोषणमुक्त
कब होंगे ?5
मुक्तिबोध जब बात सभी मानवों की करते हैं तो इसमें दलित भी शामिल हैं या नहीं, यह एक जरूरी प्रश्न है । परंतु इतना तो स्पष्ट है कि मुक्तिबोध समाज में समानता के पक्षधर रहे हैं । मुक्तिबोध की ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ नाम से एक प्रसिद्ध कविता है । मुक्तिबोध द्वारा कविता में बहुविषयक संदर्भों को उठाया गया है । कहीं पर स्त्री जीवन से संबंधित पंक्तियाँ देखने को मिलती हैं, तो कहीं पर समाज की अन्य समस्याएँ देखने को मिलती हैं । अन्य कई चीजों का जिक्र करने के बाद मुक्तिबोध इसी कविता में हरिजन बस्ती का जिक्र करते हैं-
हरिजन-बस्ती में, मंदिर के पास एक
कबीठ के धड़ पर,
मटमैले छप्परों पर,
कुहासों के भूतों पर लटके
चूनर के चिथरे
अंगिया व घाघरे फटी हुई चादरें
अटक गयी जिनमें एक
व्यभिचारी की टकटकी
गंजे सिर, टेढ़े मुँह चाँद की ही कंजी आँख !
इसी संदर्भ में अशोक चक्रधर ने अपनी पुस्तक ‘मुक्तिबोध की कविताई’ में जिक्र किया है कि “नाले के इधर-उधर मजदूर बस्तियाँ हैं, हरिजन गलियाँ हैं । मजदूर बस्तियाँ और हरिजन गलियाँ महानगरों में प्रायः गंदे नालों के ही आस-पास पायी जाती हैं ।” मुमकिन है कि नालों के आस-पास रहने के लिए जगह थोड़ी सस्ती मिल जाती है और शहर के समृद्ध लोग प्रायः ऐसी जगहों पर रहना पसंद नहीं करते हैं ।
‘हरिजन’ शब्द का प्रयोग महात्मा गांधी ने दलितों के लिए किया था । इस शब्द को लेकर दलित समाज को घोर आपत्ति है । आपति इसलिए है क्योंकि दलितों की नजरों में यह एक निकृष्ट शब्द है । दलितों का मानना है कि प्राचीन समय में मंदिर के पुजारी, मंदिर की सेविकाओं के साथ दुराचार करते थे, जिनसे प्राप्त संतान को वे हरिजन (ईश्वर की संतान ) कहते थे । मंदिर के पुजारी यह शब्द इसलिए प्रयोग में लाते थे ताकि वे अपने कुकृत्य छिपा सकें । इसलिए दलितों के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग विवादास्पद बना हुआ है । वर्तमान में इस शब्द से दलितों में आक्रोश का भाव ही पनपता है ।
हरिजन बस्ती के इस जिक्र में मुक्तिबोध ने उनकी तंगहाल जिंदगी का भी जिक्र किया है । उनके पास रहने के लिए न तो ढंग के घर हैं और न ही पहनने के लिए उचित वस्त्र । ‘कुहासे के भूतों के लटके / चूनर के चिथरे / अंगिया व घाघरे फटी हुई चादरें’ निश्चित तौर पर यह चित्रण एक ऐसी स्थिति को बयान करता है, जिसमें मनुष्य का जीवन अपने निकृष्टतम स्थिति पर ही दिखलाई पड़ता है । जिस मनुष्य के पास जीवन-निर्वाह के लिए सामान्य (बेसिक) संसाधन भी मौजूद नहीं हैं, तो भला किस प्रकार वह खुद को विकसित कर पाएगा । आजादी के बाद भारत समाजवादी विचार से प्रेरित होकर आगे बढ़ने का प्रयास करता है । इसमें भारत कितना सफल हो पाया है यह एक बड़ा प्रश्न है ? इस विचारधारा के केंद्र में प्रमुखता से संसाधनों के नियंत्रण और प्रयोग पर बल दिया जाता है और देखा जाता है कि जनसंख्या के सभी स्तरों पर वस्तुओं और सेवाओं का समान वितरण हो पाया है या नहीं । ध्यातव्य है कि संसाधनों पर जिनका भी नियंत्रण होता है, वे ही सबसे ज्यादा फलते-फूलते हैं ।
भारतीय समाज संस्कृति और सभ्यता के प्रश्न पर अपने को सर्वोपरी मानता आया है । अतीत का गौरव-गान करना उसे राहत देता है । निश्चित रूप से कई क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति गौरव करने लायक है । आदर, सत्कार, परोपकार, परहित कामना, उच्च स्तर की विद्वता आदि अनेक संदर्भों में भारतीय संस्कृति उत्कृष्ट है, परंतु कुछेक ऐसे पहलू भी हैं जहां पर भारतीय संस्कृति भेदभावपूर्ण व्यवहार करती हुई दिखलाई पड़ती है । दलितों के लिए, गरीबों के लिए शोषण का आधार भी बनी है । इसी संदर्भ में मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं:-
इसीलिए संस्कृति के मुख पर
मनुष्य की अस्थियों की राख है
जमाने के चेहरे पर
गरीबों की छातियों की खाक है !!
मुक्तिबोध ने अपनी कविता में एक स्थल पर ‘धोबी’ शब्द का भी प्रयोग किया है । मुक्तिबोध ने एक धोबी के भी महत्व को स्वीकार किया है और उसके लिए एक सम्मान का भाव भी प्रकट किया है । प्रायः यह देखा गया है कि धोबी एक ऐसी जाति है, जिसने कपड़े धोने के काम को एक व्यवसाय के रूप में चुना है । ग्रामीण क्षेत्र हो या फिर शहरी क्षेत्र हो दोनों ही जगह धोबी एक-सा कार्य करते हैं । परंतु ग्रामीण क्षेत्र में धोबी की जिंदगी अलग ढंग की दिखलाई पड़ती है और शहरी क्षेत्रों में अलग ढंग की । समान्यतः ग्रामीण क्षेत्र के धोबी की जिंदगी बहुत ज्यादा उच्च स्तरीय नहीं होती और उनकी हालत दयनीय ही बनी रहती है । कपड़ों की धुलाई करने से वे बहुत ज्यादा आय अर्जित नहीं कर पाते हैं । परिणाम स्वरूप उनकी आर्थिक स्थिति खराब ही बनी रहती है । गाँव में उनके जीवन जीने का ढंग भी निम्न स्तर का ही होता है । उनके घरों की स्थिति आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग के लोगों की अपेक्षा बहुत ज्यादा खराब रहती है । यह भी देखा गया है कि इसके चलते उनकी आने वाली पीढ़ियाँ भी बहुत ज्यादा उभर नहीं पा रही है । उनमें अभी भी शिक्षा का अभाव बहुत ज्यादा है । यही कारण है की गाँव के धोबी अभी भी निम्नस्तरीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं । दूसरी तरफ शहर के धोबी की स्थिति गाँव के धोबी से कुछ भिन्न दिखलाई पड़ती है । वर्तमान में शहरी क्षेत्र में धोबी व्यवसाय प्रगति कर गया है । लेकिन शहरी क्षेत्र में भी धोबियों के दो रूप देखने को मिलते हैं। पहले वे जो बड़ी-बड़ी दुकानों में ‘ड्राईक्लीनर्स’ के नाम से अपना व्यवसाय करते हैं, दूसरे वे जो शहरों की तंग गलियों में रहकर अपना व्यवसाय करते हैं । ‘ड्राईक्लीनर्स’ करने वालों में सभी जाति/धर्म के लोग संलग्न हैं । यानी उनमें हम किसी एक जाति विशेष को इंगित नहीं कर सकते । इस संदर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि इस व्यवसाय में अब सभी जात/धर्म के लोग आने लगे हैं । लेकिन सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात जो सामने उभर कर आती है, वह यह है कि शहरों की तंग गलियों में व्यवसाय करने वाले धोबियों और गाँव में कपड़े धोने वाले धोबियों की हालत लगभग एक-सी ही है । यानी कि ज्यादा बेहतर नहीं ।
मुक्तिबोध ने जब ‘धोबी’ शब्द का प्रयोग किया तो वे धोबी के महत्व को समझते हुए उसे ‘बुद्धि को स्वच्छ’ करने तक विस्तारित कर देते हैं । इस संदर्भ में मुक्तिबोध ने कपड़े, इस्तरी और धोबी तीनों का आपसी संबंध स्थापित किया है । अंततः इन तीनों को प्रतीकात्मक रूप से ‘अच्छे विचार’ पैदा करने वाला बताया है । मुक्तिबोध द्वारा तो धोबी को भी गुरु की संज्ञा दे दी है । मुक्तिबोध की कविता ‘एक फोड़ा दुखा’ की पंक्तियाँ हैं-
कांक्षा ने पहन लिए
आदमी के कपड़े कपड़ों ने करा ली थी इस्तरी
इस्तरी ने धोबी के महत्व को बनाया
धोबी गुरु हो गया
गुरु ने हृदय धोया
बुद्धि को स्वच्छ किया
धुले-पुंछे हृदय और बुद्धि ने
न्यायोचित बात की
अच्छी सलाह दी
अच्छा विचार किया ।
मुक्तिबोध समाज में असमानता के घोर विरोधी थे । उन्हें इस बात से आपत्ति थी कि एक ही समाज में रहने वाले लोगों के जीवन में इतना अंतर क्यों है ? इसलिए वे समानता को अत्यधिक महत्व देते हैं । मुक्तिबोध किसी कार्य को छोटा-बड़ा या हीन नहीं मानते थे । भारतीय समाज की प्राचीन काल से विडम्बना यह रही है कि उसने एक ऐसे समाज की लगातार अवहेलना की है, जिसने इस समाज में फैली गंदगी को हमेशा साफ किया है । फिर भी उनका कोई योगदान भारतीय समाज में इंगित नहीं किया गया है । मुक्तिबोध उन लोगों के प्रति एक तरह से कृतज्ञ महसूस करते हैं । वे एक मेहतर द्वारा किए गए कार्य को भी व्यापक नजरिए से देखते हैं । क्योंकि मसला तो सारा-का-सारा नजरिए का ही होता है । मान लीजिए कि किसी व्यक्ति को हम नाली साफ करते हुए देख लेते हैं, तो उस समय यदि हमारा नजरिया व्यापक नहीं होगा तो हमें वह व्यक्ति हीन दिखलाई पड़ेगा । वहीं अगर हमारा नजरिया व्यापक होगा, समानता का पक्षधर होगा, तो हमें दूसरे के काम के प्रति हीनता का बोध नहीं होगा । इस संदर्भ में मुक्तिबोध व्यापक दृष्टिकोण रखते हैं । मुक्तिबोध मेहतर के काम का सम्मान करते हुए, उसके द्वारा किए जा रहे काम को करने में अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं । ‘मैं तुमसे दूर हूँ’ कविता में मुक्तिबोध ने इसी पहलू को उठाया है –
फिर भी, मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूँ
निज से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता ।
मुक्तिबोध अपनी कविताओं मे जब आदिवासियों का उल्लेख करते हैं तो यह दिखने का प्रयास कराते हैं कि जंगलों में जीवन यापन करना सभी के लिए अनुकूल नहीं हो सकता । न ही आम मनुष्य जंगलों में जाकर लंबे समय तक रह पाएगा । जंगलों में प्रकृति द्वारा प्रदत्त अनेकानेक फल ऐसे हैं, जिनका भोग सभी नहीं कर सकते । वे दिखने में एक जैसे हो सकते हैं, लेकिन उनमें से कुछ विषाक्त भी हो सकते हैं, जिनका सेवन आम मनुष्य जंगलों में जाकर करने लगे तो प्राणों तक का जोखिम हो सकता है । मुक्तिबोध ने इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है :-
इन्हीं सख्त पेटों पर बार-बार
जंगली बिलार
बैठ गिलहरी खाती थी
वृक्षों का फल खाया मैंने तो
मूर्छित हो मर गया ।
यानी जंगलों मे व्याप्त प्रत्येक चीज सभी के लिए अनुकूल हो यह संभव नहीं, किसी के लिए वह खाद्योपयोगी है तो किसी के लिए वह जानलेवा हो सकती है । इस बात में कोई दोराय नहीं है कि आदिवासी लोग जंगलों कि स्थितियों से भली-भांति परिचित होते हैं । जंगलों में जीव-जन्तु, वनस्पतियाँ आदि उनके लिए कभी जानलेवा नहीं होते । इसका प्रमुख कारण यह भी है कि वे प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल बैठा लेते हैं, यानी उन्होंने खुद को प्रकृति के अनुकूल ढाल लिया है । प्राकृतिक आपदाएँ जैसी विनाशकरी घटनाएँ भी उन्हें ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाती । इसके लिए उन्होंने स्वयं को एक प्रकार से अभ्यस्त कर लिया है । जंगलों में रहकर वे इतने अनुभवी हो गए हैं कि जंगलों में आने वाली समस्याओं से निपटने का रास्ता स्वयं खोज लेते हैं । आदिवासी ही वे पहले मनुष्य कहे जाएंगे जिन्होंने जंगलों मे विचरण करते हुए खाद्य-अखाद्य पदार्थों की खोज की । इस मामले में वे बेहद अनुभवी व आदि वैज्ञानिक भी कहे जाएंगे । क्योंकि उन्हीं की बदौलत मनुष्य ने खाद्य-अखाद्य पदार्थों के अंतर को पहचानना प्रारम्भ किया था, जिससे आज अनेकानेक खाद्य समग्रियों का विस्तार हो पाया है । इस संदर्भ में मुक्तिबोध की कविता ‘मनुष्यों के जंगल में’ की पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं:-
हम आदिवासी जन बहुत-बहुत अनुभवी
अनेकविध फल चखकर बार-बार
हमने ही दुनिया में प्रथम बार
खाद्य-अखाद्य सब ठहराया
मनुष्य का भोजन निश्चय किया
हम आदि वैज्ञानिक !!
मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं के कुछ हिस्सों में आदिवासियों से प्रत्यक्ष रूप में बात कहलवाई है और कविताओं के कुछ हिस्सों में दूसरा व्यक्ति उनसे कुछ कहता हुआ दिखलाई देता है । यह ऐसा दिखलाई पड़ता है जैसे कि आदिवासी अपनी बात कह रहे हैं और फिर दूसरा व्यक्ति भी उनसे कुछ कहा रहा है । यह एक प्रकार का संवाद-सा दिखलाई देता है ।
मुक्तिबोध ने आदिवासियों के मस्तिष्क में कभी-कभी कौंध जाने वाले नकारात्मक विचारों तक भी पहुँचने की कोशिश की है, जिसमें आदिवासी लोग यह स्वीकार करते नजर आते हैं –
किन्तु है हममें भी दोष एक
कई बार जहरीली नालियाँ
दिमागी रगों में बह उठती हैं ।
यानी मुक्तिबोध आदिवासियों के जीवन की जटिलताओं की तरफ आधुनिक समाज का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि आदिवासियों के जीवन में इस समय जो समस्याएँ व्याप्त हैं, उनमें आधुनिक समाज का खासा योगदान है । इसलिए भी उनके मन में आधुनिक मनुष्यों के प्रति रोष व द्वेष का भाव उत्पन्न होता है । लेकिन इसके बावजूद भी आदिवासी लोग अपने द्वेष को दबाकर रह जाते हैं । मसला यह भी है कि उनकी सभी बातों को आधुनिक मनुष्य सही-सही समझ पाए यह संभव नहीं है । ठीक इसी तरह आदिवासी लोग भी आधुनिक भाषा से अनभिज्ञ हैं । इसलिए वे तमाम चीजों को अहसास के माध्यम से स्वीकारते-नकारते हैं –
किन्तु, हमें दुख है कि उनमें का पौटैश सब
और गंधक निकाल नहीं पाते हम
बस उन्हें द्रव्यों को महसूस ही करते रह जाते हैं !!
पीले पौटैश उस गंधक से
ज्वाल रूप दुल्हिन की साड़ियाँ बनती हैं !!
मुक्तिबोध ने एक और जरूरी मुद्दे की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है कि कई लोग वर्तमान में आदिवासियों के ऊपर यह दोष मढ़ते नजर आते हैं कि उनकी बदौलत आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा है और उन्हीं कि बदौलत कई प्रकार की बीमारियाँ भी उत्पन्न हो रही हैं, वे जंगलों को जलाते हैं और बहुत सारी समस्याओं की जड़ बने हुए हैं –
ओ आदिवासियों बनाओ ये साड़ियाँ
मनुष्य के जंगल का
दंडकारण्य का दहन करो
एक कृष्ण ने दाह किया खांडव का
वही कृष्ण तुम में भी पैदा हो ।
इसी कविता में आगे जिक्र है कि
ध्यान रखो
मनुष्यों के जंगल में
तुम्हारी कुमारियाँ और नारियां भ्रष्ट हुई
कौन नहीं जनता कि कई रोग हमारे ये
उनके ही देन है ।
लेकिन यह कहना पूर्णतया सही नहीं है कि आदिवासियों कि बदौलत ही आर्थिक विकास रुका हुआ है, क्योंकि आधुनिक समय में आर्थिक विकास जिस तरह से संसाधनों का समापन करते हुए आगे बढ़ रहा है, वह स्वयं आज के आधुनिक लोगों के लिए भी खतरा बन गया है । ऐसे में आदिवासियों के ऊपर आरोप मढ़ना निरर्थक है । आधुनिक मनुष्य ने पर्यावरण को ताक पर रखकर लगातार जंगलों का अतिदोहन किया है, उससे स्वच्छ वायु का अभाव होता जा रहा है, जो हमारे सामने वायु पप्रदूषण के रूप में बड़ा संकट है । इसी का परिणाम है कि छोटे- छोटे बच्चे भी ‘अस्थमा’ जैसी बीमारियों की गिरफ्त में आ चुके हैं । इसलिए वर्तमान में व्याप्त अनेक संकटों के लिए आदिवासियों से ज्यादा आधुनिक मनुष्य जिम्मेदार हैं ।
वर्तमान समय में आदिवासियों के लिए जीवन यापन करना इसलिए भी कठिन होता जा रहा है, क्योंकि अभी भी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है । एक तो इस बात का तर्क समझ नहीं आता कि इस पृथ्वी पर तमाम चीजें प्रकृति प्रदात हैं फिर मानव ने उनके बीच भेद करना क्यों प्रारम्भ कर दिया ? मनुष्य स्वयं को बुद्धिमान मानते हुए ऐसे-ऐसे कृत्य करता जा रहा है, जिन्हें संकीर्ण मस्तिष्क की उपज ही कहा जाएगा । सबसे अहम् मुद्दा तो यहा है कि आज सभी मनुष्य खुद को एक-दूसरे से भिन्न करने में तुले पड़े हैं । कोई खुद को धर्म से जोड़ता है और खुद को श्रेष्ठ समझता है, तो कोई खुद को जातिगत आधार पर श्रेष्ठ घोषित कर चुका है, जबकि इन बातों का कोई तार्किक आधार नहीं है । इस पृथ्वी पर जब कोई मनुष्य आता है तो केवल दो भाव लेकर जिसका जिक्र आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आफ्नै पुस्तक ‘चिंतामणि-1’ में किया है-“मनुष्य सुख और दुख नामक दो भाव लेकर पृथ्वी पर आता है’ ।
यानी भेदभाव करने का कोई तार्किक आधार न तो कभी था और न ही कभी हो पाएगा । आज़ादी के बाद जब भारतीय संविधान लागू हुआ तो उसमें कई प्रावधान मनुष्य-मनुष्य में समानता व्याप्त करने के लिए किए गए, ताकि भेदभाव युक्त भारतीय समाज में समानता का भाव जागृत किया जा सके, जिसके चलते संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनु. 15 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म, वंश के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा । इसके अतिरिक्त संविधान में जनजातियों के क्षेत्रों को अनुसूची पाँच व छह में सुरक्षित किया गया है ।
इससे सामाजिक मुद्दा यह उभरकर आता है कि आदिवासी लोगों में असुरक्षा को लेकर एक भय का माहौल बना हुआ है । किताबों, कहानियों, भाषणों आदि में जो हम पढ़ते, सुनते हैं स्थिति उससे कहीं ज्यादा बदतर होती जा रही है । क्योंकि इन सब से हम तक अधूरी जानकारी ही पहुँच पाती है, जबकि चीजें उससे कहीं ज्यादा बिगड़ी हुई हैं । आदिवासियों ने पिछले तीन सौ सालों से ( अंग्रेजों के भारत में आगमन से लेकर वर्तमान तक ) खुद को सुरक्षित महसूस नहीं किया । मुक्तिबोध की इन पंक्तियों में हम यही महसूस करते हैं कि –
स्याह आदिवासी हम
कुली हम खलासी हम
हम हबशी, हम मेहतर, हम गरीब शिक्षक हैं
कि जिन्हें पिछले महीनों से
अवेतन ही रहना पड़ा है और
मनुष्यों के जंगल में पड़ा है खूब घूमना
निःसहाय !!
आदिवासियों की सबसे बड़ी चिंताओं में से एक तो यही है कि लोग उन्हें न जाने क्या-क्या समझ लेते हैं । उनके बारे में गलत-गलत धारणाएं बना लेते हैं । मान लीजिए कि जब कोई न्यूज पेपर खबर छापता है कि किसी आदिवासी बहुल क्षेत्र में आदिवासी लोगों ने किसी व्यक्ति को घायल कर दिया है । यह पढ़कर हममें आदिवासियों के प्रति खिन्नता उत्पन्न होती है, जिससे हमें वे गलत दिखलाई पड़ेंगे । लेकिन इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि आदिवासी लोगों के लिए जंगल उनके घर होते हैं और बाहर से आनेवाले लोग उनके लिए घुसपेठिए हैं । वे खुद को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं । ( सेंटनलीज जनजाति-अंडमान-निकोबार ) । यहाँ तक भी देखा गया है कि बहुत से लोग आदिवासियों को जानवरों की तरह समझते हैं । उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं । इन सब के चलते जब आदिवासी लोग अपना विस्तार करना चाहते हैं, तो उनकी आवाज को दबा दिया जाता है । आदिवासी लोग निःसहाय हो जाते हैं । उन्हें भी तथाकथित आधुनिक सभ्य लोगों को ‘साब’ कहना पड़ता है –
किरासीन-बू-लदी भभक और दाब
हमें नित्य कहना पड़ा है – “साब !!”
मुक्तिबोध इन स्थितियों को देखने के बाद आदिवासियों में चेतना जागृत करने के लिए एक प्रकार से आह्वान कर रहे हैं-
ओ आदिवासियों, पृथ्वी के पहचानो अपने को …
मुक्तिबोध ने इस पंक्ति के अंत में जो तीन बिन्दु लगाकर छोड़े हैं, वे आदिवासियों के जीवन और विस्तार के द्योतक ही समझे जाएंगे । जहां से आदिवासियों को प्रगति करनी है ।
प्रवीन कुमार ( शोधार्थी पीएच. डी. – हिन्दी साहित्य )
वर्धा विश्वविद्यालय