तुम्हे भूल नही पायेंगे - अभिषेक कुमार साहित्य जन मंथन

तुम्हे भूल नही पायेंगे – अभिषेक कुमार

तुम्हे भूल नही पायेंगे पहले-सा कभी फिर शायद तुमसे जुड़ नही पायेंगे… हमें याद आएगा हर वक्त हर कदम पर हर जख्म सर पे बोझ लिए नापे हुए डगर लड़खड़ाये भी थे और सुस्ताये भी पर आँखों में आंसू लिए हारे नही हरपल हर पग सहते रहे बढ़ते रहे तुम्हे आगे पढ़ें..

उम्मीद - बृजेश शर्मा साहित्य जन मंथन

उम्मीद – बृजेश शर्मा

टूटने का दर्द झेला नहीं था मैंने, बस सुना था। कुछ लोग कहा करते थे, आदमी आखिर टूट ही जाता है, भीष्म प्रतिज्ञा भले ही ले लें, फिर भी टूट ही जाता है।। मैं सोचता था, टूटते होंगे लोग, मुझे क्या लेना,किसी के टूटने से पर जब मैं टूटा खुद आगे पढ़ें..

कोरोना है एक महामारी साहित्य जन मंथन

कोरोना है एक महामारी

कोरोना है एक महामारी पड़ी है सब जन पर आज भारी ख़ुद-ब-ख़ुद चिंतन सबमें सता रही आज बारी बारी कोरोना है एक महामारी… त्राहि-त्राहि है हर ओर इन्सान शरीर रहा है छोड़ कितनी मौतें कितनी लाशें आंकड़े की है सब बातें फैल रहा है सभी ओर कोरोना है बेजोड़ हर आगे पढ़ें..

गठजोड़ साहित्य जन मंथन

गठजोड़

बूंद से बूंद मिलकर नदियां बनी, सागर बने और महासागर बने शब्द से शब्द मिलकर कविता बनी, कहानी बनी और उपन्यास बने हवा और लहरों को मिलाकर तुफान, आंधी और बवंड़र बने सूरज और चांद मिलकर दिन और रातें बनी तुम से मैं बना और मैं से तुम और साथ आगे पढ़ें..

अगर इन्हें जीवन मिल पाता साहित्य जन मंथन

अगर इन्हें जीवन मिल पाता

अगर इन्हें जीवन मिल पाता समृद्ध होती मेरी भारत माता सूर वीर के बलिदानों की खून से लिखनी है अब गाथा हिन्द हिमालय, मुस्लिम मंदिर वर्षों से है खून का नाता तड़प रही है भारत माता अगर इन्हें जीवन मिल पाता भक्त खून करके है नहाता मंदिर चढकर टेके माथा आगे पढ़ें..

दृढ़ साहित्य जन मंथन

दृढ़

सैलाब नहीं यह भगदड़ है खाकी पर भारी खद्दड़ हैं यहां चले कारवां गलियों में ले उठा हाथ में दर्पण है सत्ताधारी को जनता सब ले करे आ रही अर्पण है पैदल पग हैं, पग में पग हैं जो करे आ रहे समर्पण है हैं जाल घने हैं हाल बुरे आगे पढ़ें..

आज वैलेंटाइन डे है , है न ! साहित्य जन मंथन

आज वैलेंटाइन डे है , है न !

आज वैलेंटाइन डे है , है न ! फ्रैंडशिप डे,मदर्स डे,फादर्स डे भी . वाइफ डे, हस्बैंड्स डे और ब्रदर्स, सिस्टर्स डे भी होता ही होगा , मुझे, शायद पता नहीं . मैंने तो कभी मनाया नहीं . क्या करते हैं , इन दिनों को मनाने में ? वह दिन आगे पढ़ें..

पुलवामा साहित्य जन मंथन

पुलवामा

क्या होगा भयानक दृश्य वहां वीरों ने गवाये प्राण जहां कतरा कतरा था खून गिरा थम गया समय ही पल में वहां चल रहे लोग चलतीं गाड़ी हुआ रक्त तेज रुक गयीं नाड़ी झकझोर दिया इस हमले ने देखें रस्ता घर माँ ठाढ़ी थी उम्र अभी बचपने की कुरबानी दे आगे पढ़ें..

हिंदी में बोलूँ साहित्य जन मंथन

हिंदी में बोलूँ

हिंदी में बोलूँ जो सोचूँ हिंदी में सोचूँ जब बोलूँ हिंदी में बोलूँ जन्म मिला हिंदी के घर में, हिंदी दृश्य-अदृश्य दिखाए। जैसे माँ अपने बच्चे को, अग-जग की पहचान कराए। ओझल-ओझल भीतर का सच, जब खोलूँ हिंदी में खोलूँ।। निपट मूढ़ हूँ पर हिंदी ने, मुझसे नए गीत रचवाए। आगे पढ़ें..

मेरा वेतन साहित्य जन मंथन

मेरा वेतन

मेरा वेतन ऐसे रानी जैसे गरम तवे पे पानी एक कसैली कैंटीन से थकन उदासी का नाता है वेतन के दिन सा ही निश्चित पहला बिल उसका आता है हर उधार की रीत उम्र सी जो पाई है सो लौटानी दफ्तर से घर तक है फैले कर्जदाताओं के गर्म तकाजे आगे पढ़ें..