लुंबनी यात्रा
भारत का तराई भू भाग जो लगभग हमेशा हरा भरा रहकर धरती को परिधान स्वरूप ढके हुए रहता है।इसी सीमा से लगा नेपाल देश जो अपनी सुरम्यता के साथ वनों से आच्छादित है और प्रकृति सौदर्य प्रेमियों को अपनी ओर अनायास आकर्षित करता है।भारत की प्राकृतिक छटाओं से परिपूर्ण सीमा से महज पंद्रह बीस किलोमीटर की दूरी पर वह महास्थल “लुंबनी” स्थित है, जहां मानवता के प्रकाश पुंज,महामानव “बुद्ध” का उद्भव, जन्म हुआ था।
इस पवित्र स्थल को समीप से निहारने के लिए ना जाने कितने समय से आंखें लालायित थीं, इसी लालसा के साथ बुद्ध के नैतिक विचारों से आकर्षित हृदय, कदमों को लुंबिनी की तरफ लगातार बढ़ने को प्रेरित कर रहा था।
बुद्ध के सम्मान में बने बड़े-बड़े तोरण द्वार उस महास्थल के समीप होंनें का संकेत दे रहे थे। सड़क को दो भागों में विभाजित करती रेखा के मध्य पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थापित बुद्ध की प्रतिमाएं उस अनुपम धरा के आकर्षण का मौन बखान कर रहीं थीं।
वैसे आराम पूर्वक व समय के संतुलन के हिसाब से निजी साधन उपयोगी है लेकिन वहां की संस्कृति सभ्यता से भी रूबरू होंने हेतु सार्वजनिक साधन ही श्रेष्ठकर है।
आखिर कल्पना से भी सुंदर,अनुपम,सुरम्य और रमणीय वह महास्थल साक्षात आंखों के सामने था जो बुद्ध के चरणों के स्पर्श का गवाह होने के कारण गौरव से इतरा रहा था।सांस साधे कदम परिसर में प्रवेश कर लगातार बढ़ते चले जा रहे थे।परिसर में पेड़ पौधों की सरसराहट व पक्षियों की चहचहाहट/कलरव के अलावा कोई मानवीय व कृत्रिम ध्वनि नहीं सुनाई दे रही थी। पेड़ एवं पुष्पों से आच्छादित वन बुद्ध कथाओं में लुंबिनी वन की अलंकृतपूर्ण वर्णित व्याख्या को प्रमाणित कर रहे थे।कुछ दूर और चलने के बाद सफेद चमकता भवन (माया मंदिर) पेड़ों की ओटो के हट जाने के बाद झलका जो था एक युगनिर्माता, मानवता के प्रकाश पुंज, करुणा के सागर बुद्ध के महाजन्म का महास्थल, जहां से फैला था पूरे विश्व में करुणा,दया, मानवता व भाईचारे का संदेश। न जाने कितने देर तक अपलक आंखें इस पवित्र पुण्य से पल्लवित धरा को देखती रहीं जो एक सुखद सपना जैसे लग रहा था और हृदय अपार हर्ष से भरा जा रहा था।
इस मंदिर के आसपास सम्राट अशोक द्वारा बनवाए स्तूप व स्तंभ के भग्नावशेष मौजूद हैं, जो पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित किए गए हैं। बताते हैं यह स्तूप अशोक ने बुद्ध के जन्म के लगभग ढाई तीन सौ वर्ष बाद बनवाए थे। इन भग्नावशेषों की खोज डॉक्टर फुहरर ने की जो बुद्ध के जन्मस्थान को प्रमाणित करते हैं।इसी परिसर में एक संग्रहालय भी स्थित है जिसमें इस स्थल की खुदाई के दौरान मिली बुद्ध एवम सम्राट अशोक कालीन दुर्लभ वस्तुओं को संभाल और संजोकर रखा गया है जो उस समय की घटनाओं और व्यवस्थाओं का मौन वर्णन करती हैं।
लगभग तीन किलोमीटर की परिधि में फैले परिसर में विभिन्न देशों द्वारा बुद्ध के सम्मान में स्तूप व मंदिरों का निर्माण कराया गया है जो बहुत ही मनोहारी लगते हैं।यूं तो पूरा क्षेत्र पेड़,पौधों,झील व तालाबों आदि प्राकृतिक छटाओं से अलंकृत व आह्लादित है,जो स्थानीय सरकार के विकास एवम संवर्धन से और अनुपम छटा बिखेर रहा था तथा मन,संताप एवम चिंताओं से मुक्त होकर मानवता व करुणा रूपी सागर में डूबता हुआ प्रतीत हो रहा था। न चाहते हुए भी युगदृष्टा,मानवता के प्रखर पुंज के चरण स्पर्श से पवित्र धरती के स्पर्श का सुखकारी अनुभव समेटे व प्रणाम और वंदन करते हुए भारी मन से महास्थल से प्रस्थान किया।
यदि आप मानवता के संवाहक हैं,आपके हृदय में करुणा और वेदना जाग्रत है,प्रत्येक मानव व प्राणियों के प्रति दया का भाव है और आपका मन समानता का उपासक है तो एक बार उक्त नैतिक विचारों से सराबोर पवित्र बुद्ध जन्म भूमि पधारकर अपनें नैतिक मूल्यों को मजबूत व सिंचित कर उनका विकास एवम संवर्धन जरूर करें।
……नमो बुद्धाय
@संतराम प्रजापति