व्यक्ति या समूह के सामाजिक तथा आर्थिक स्तरों की भिन्नता ही वर्ग निर्धारण का आधार होती है अर्थात एक विशेष प्रकार के सामाजिक और आर्थिक स्तर वाले लोग एक समूह के अंतर्गत आकर एक विशिष्ट वर्ग का निर्माण करते हैं। आज हमारे समाज में उच्चवर्ग और निम्नवर्ग के साथ तीसरा वर्ग भी है, जो न उच्चवर्ग में शामिल हो पाता है न निम्नवर्ग में, ऐसा वर्ग मध्यवर्ग कहलाता है। सामंती व्यवस्था के पतन तथा पूंजीवादी व्यवस्था के उदय से एक नवीन मध्यवर्ग का उदय हुआ जिसका विकास ब्रिटिश राज की स्थापना के साथ तेजी से होने लगा। उपन्यास इसी मध्यवर्गीय समाज की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से जुड़ा रूप रहा है। इसी वर्ग के पढ़े लिखे लोग इस नव- विकसित गद्य रूप के पाठक रहे हैं और उन्हीं में से कुछ अपने या अपने आसपास के जीवन को अंकित करने की लालसा से उत्प्रेरित होकर ही उसमें रचनात्मक हस्तक्षेप की दिशा में अग्रसर हुए हैं। इन सारी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद उपन्यास भारत में ब्रिटिश संपर्क का ही सीधा परिणाम था। पश्चिमी उपन्यास का स्वरूप दिखाते हुए मध्यवर्ग के उत्थान का कारण आचार्य नंददुलारे वाजपेयी लिखते हैं – “मध्यवर्ग के सामंती समाज का अंत होने पर जब नवीन औद्योगिक सभ्यता का आविर्भाव हो रहा था और नगरों में नवीन मध्यवर्ग की सत्ता स्थापित हो रही थी,उसी समय उपन्यास के साहित्यांग का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार उपन्यास एक ओर गद्य साहित्य के निर्माण और विकास का समकालीन है और दूसरी ओर वह मध्यवर्ग के उत्थान का समसामयिक है।”
भारत में मध्यवर्ग का उदय औपनिवेशिक शासन के साथ आरम्भ हुआ। अंग्रेजों ने जो नई प्रशासनिक व्यवस्था भारत में स्थापित की, नए ढंग की शिक्षा का प्रसार किया, नई तरह की अर्थव्यवस्था शुरू की, इन सबसे मध्यवर्ग का विस्तार हुआ और उसका वर्चस्व बढ़ने लगा जिससे भारतीय मध्यवर्ग अपने महत्त्व के प्रति सचेत हुआ और भारतीय समाज का नेतृत्व उसके हाथ में आ गया। भारतीय मध्यवर्ग जैसे-जैसे विकसित होता गया वैसे-वैसे उसमें व्यक्तिवादिता बढ़ती गयी। इस तरह स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी उपन्यास में भी मध्यवर्ग के प्रखर होते व्यक्तिवाद को अनेक रूपों में प्रतिबिंबित होते हुए देखा जा सकता है।
मध्यवर्ग आज जनसंख्या के विभिन्न भाग को सूचित करने वाला पारिभाषिक शब्द है जिसमें मुख्यतः छोटे-छोटे व्यापारी और उद्योगपति व्यवसायिक एवं दूसरे सामान्य आय वाले बौद्धिक कार्यकर्ता, कुशल शिल्पी, समृद्ध किसान, सफेदपोश कर्मिष्ठ वर्ग तथा बड़े-बड़े व्यापार केन्द्रों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के वेतनभोगी सेवक आते हैं। उनमें बहुत कम सामान्य आर्थिक हित हैं, जो कुछ समानता उनमें है वह उनके शैक्षिक स्तर, जीवन स्तर और पारिवारिक जीवन के आदर्शों एवं उनके लोकाचार तथा मनोविनोदात्मक हितों में है। हिंदी साहित्य कोष के अनुसार मध्यवर्ग की परिभाषा इस तरह दी गयी है – “पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था ने समाज को इतना जटिल कर दिया है कि एक मध्यवर्ग की आवश्यकता हुई जो इस जटिल व्यवस्था के संगठन सूत्र को संभाल सके। इस वर्ग में नौकरीपेशा शिक्षक, क्लर्क और अन्य साधारण लोग आते हैं। मध्यवर्ग विशेषतः बुद्धि प्रधान वर्ग माना गया है और सामाजिक क्रांति के प्रायः समस्त विचारों का सर्जन मध्यवर्ग में ही होता है।”
वस्तुतः सम्पूर्ण मध्यवर्ग को लेकर कोई एक परिभाषा बनाना सहज कार्य नहीं हैं, इसका कारण मध्यवर्ग के अंतर्गत ही स्तरीकरण इतना बढ़ा हुआ है कि मध्यवर्ग के कुछ सदस्य एक ओर उच्च वर्ग से अलग किये जा सकते हैं, दूसरी ओर निम्न वर्ग से उसका अंतर बहुत कम रह जाता है। कुछ अंतर होने के कारण ही मध्यवर्ग के भी तीन भाग हो जाते हैं – उच्च-मध्यवर्ग, मध्य-मध्यवर्ग, निम्न-मध्यवर्ग।
१.उच्च मध्यवर्ग, जो निश्चिंतता और निश्चितता से अपने जीवन को कुछ सीमा तक वैभव पूर्ण ढंग से व्यतीत करने में सदा सफल रहता है। इस वर्ग में छोटे उद्योगपति तथा वे शिक्षित व्यक्ति आते हैं जो उद्योग, किसी संस्था या सरकारी विभाग के उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हैं।
२.मध्यवर्ग, जो सामाजिक सोपान पर चढ़ने के लिए संघर्षरत रहता है और अपने जीवन की परमावश्यकताओं को केवल पूरा कर आता है। इस वर्ग में सरकारी मध्य श्रेणी के पदों पर प्रतिष्ठित, व्यावसायिक, शिक्षित दुकानदार आदि सम्मिलित हैं।
३.निम्न मध्यवर्ग, जो दिखावे की भावना से ग्रस्त बड़ी कठिनाई से जीवन यापन कर पाता है। इसमें शिक्षित बुद्धिजीवी तथा शिल्पी आते हैं, यथा क्लर्क, प्राथमिक पाठशालाओं के अध्यापक आदि।
ममता कालिया के उपन्यासों में मध्यवर्ग के तीनों रूपों – उच्च मध्यवर्ग, मध्य मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग को यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है। उनके मध्यवर्गीय संस्कारों से परिचालित पात्र अपना जीवन इस तरह पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं, जिससे सामाजिक यथार्थ को स्पष्ट देखा जा सकता है। प्रेम के विवाह बदलते ही उसकी सारी चमक और खनक के खत्म होने, परम्परागत धार्मिक, नैतिक संहिताओं के चलते मध्यवर्गीय दाम्पत्य जीवन के नरक बनने, समाज के ऊपरी वर्ग के दाम्पत्य जीवन के कृत्रिम, खोखले और संवेदनहीन होने, शिक्षित और उच्च पदों पर काम करने वाले पुरुषों द्वारा भी अपनी पढ़ी-लिखी पत्नियों को घर की एक वस्तु समझने और आत्मकेंद्रित, पाखंडी, परपीड़क, संवेदनहीन पतियों की ओछि हरकतों आदि मध्यवर्गीय समाज में उपजी परिस्थितियों की यथार्थ अभिव्यक्ति ममता कालिया के सभी उपन्यासों में दिखाई देती है।
समकालीन महिला साहित्यकारों में ममता कालिया का स्थान विशिष्ट एवं अन्यतम है। इन्हें आधुनिक काल की यथार्थवादी लेखिका के रूप में जाना जाता है। इन्होंने पौराणिकता, ऐतिहासिकता की अपेक्षा आधुनिक विषय, स्त्री समस्या, पारिवारिक परिस्थितियों को उठाना ही ज्यादा उचित समझा है। साहित्य में स्त्री को पुरूष के समानांतर दर्शाना उनके साहित्य सृजन का उद्देश्य रहा है, वे स्त्री का वैचारिक विकास चाहती हैं। ममता कालिया उन लेखिकाओं में से हैं जो आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी में आने वाले दुखों, यातनाओं, समस्याओं और उसके जीवन के हर एक पहलू के बारे में बड़ी गहराई और समग्रता से अपने सभी उपन्यासों में प्रस्तुत करतीं हैं। इसके साथ ही आम आदमी के जीवन को नारकीय बनाने वाले कारणों, संस्थाओं की व्यवस्था के मर्म तक जाकर उन्हें खंगालने, एक-एक रेशे की गांठो को खोलने और उनकी असलियत से पाठकों को रूबरू करना उनके उपन्यास बुनियादी सरोकार है।
आज़ादी के बाद सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थितियों ने समाज में जो परिवर्तन किए उसका सर्वाधिक प्रभाव भारतीय मध्यवर्ग ही पड़ा। लोग आर्थिक कारणों से घर से बेघर होने पर मजबूर हुए, जिससे नई समस्याओं ने जन्म लिया – पारिवारिक संरचना बिखरने लगी और संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवारों में परिवर्तित होने लगे। पीढ़ियों के द्वंद्व तथा स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में भी परिवर्तन लक्ष्य किये जाने लगे। ये सभी समस्याएं ममता कालिया के उपन्यासों या यूं कहें कि उनके समस्त कथा साहित्य में समग्रता के साथ अभिव्यक्त हुईं हैं,
मध्यवर्गीय जीवन में प्रणय, विवाह और मध्यवर्ग का दाम्पत्य जीवन तथा पारिवारिक जीवन का विवेचन मध्यवर्ग के सामाजिक पक्ष के अंतर्गत अपनी अहम भूमिका निभाना है चूँकि सामाजिक सम्बन्धों का तानाबाना ही समाज है अतः एक परिवार के सदस्यों का पारस्परिक सम्बन्ध का अध्ययन करें तो समाज का अध्ययन हो जाता है। ममता कालिया के सभी उपन्यासों में मध्यवर्ग के सामाजिक पक्ष को उठाया गया है, जिसमें स्त्री पुरूष तथा परिवार से संबंधित समस्याओं बको उजागर किया गया है। इसके साथ ही ममता कालिया के उपन्यासों में मध्यवर्गीय जीवन की छवि यूँ देखी जा सकती है कि मध्यवर्ग संयुक्त परिवार को पसंद नहीं करता, वह एकल परिवार की अवधारणा निर्मित करता है। पुरुष वर्ग तो कुछ समय संयुक्त परिवार में काट भी सकता है, पर महिलाएं नहीं चाहती कि उन्हें जीवन में संयुक्त परिवार में रहना पड़े वे एकल परिवार में खुशी से रहना पसंद करती हैं। इसका उदाहरण बेघर के रमा और दुक्खम-सुक्खम की इंदु हैं जो संयुक्त परिवार से दूर होने के बाद पुनः वहां जाने के नाम से भी घबरातीं हैं। अपनी सास विद्यावती की तबियत खराब होने पर भी इंदु यह कह कर जाने से इंकार कर देती है कि – “मैंने जाकर देखा नहीं है क्या? जब जाओ, लड़ाई झगड़े के सिवा मथुरा में और होता क्या है। बड़ी मुश्किल से उस नरक से निकली हूँ।” इसके साथ ही एकल परिवार होने से महिलाएं रिश्तेदारों तक का दखल स्वीकार नहीं करतीं। बेघर उपन्यास में परमजीत बड़ा मकान लेने के लिए पत्नी से सलाह मशविरा करता है और पत्नी रमा उसे झट से जवाब देती है- “नहीं जी, बम्बई में ज्यादा बड़ा मकान होगा तो रिश्तेदार लाइन बांधकर चले आएंगे घूमने के लिये। मैंने तो सबकी लिख रखा है हमारे पास जगह नहीं है।”
मध्यवर्ग की आय के स्रोत बड़े सीमित होते हैं। उसकी ये का मुख्य स्रोत नौकरी है और कुछ व्यक्तियों की यह का साधन व्यापार है जिस स्रोत से भी ये होने की सम्भावना हो मध्यवर्ग उधर ही रुचि दिखता है। इसलिए अधिक धन प्राप्त करना उसका लक्ष्य होता है फिर उसके लिए चाहे परिवार से दूर ही क्यों न रहना पड़े, कभी मजबूरी में तो कभी आदतन आर्थिक समृद्धि के लिए नगरों, बड़े शहरों की तरफ पलायन करना पड़ता है। ‘बेघर’, ‘दौड़’, ‘दुक्खम सुक्खम’ में इसका यथार्थ चित्रण ममता कालिया ने किया है। इसके साथ ही बढ़ती महंगाई और दिखावे वाला मध्यवर्गीय जीवन भी उनके सभी उपन्यासों में बखूबी चित्रित हुआ है।
ममता कालिया के उपन्यासों में मध्यवर्गीय पात्रों की मनोग्रंथि, मन की भावनाओं इत्यादि का चित्रण भी यथार्थता के साथ प्रस्तुत हुआ है। इसे मध्यवर्ग का मनोवैज्ञानिक पक्ष कहा जा सकता है, इससे मानव मन की विभिन्न प्रवृतियों का विश्लेषण किया जाता है प्रमुख रूप से कम, अहं और हीनता। इन प्रवृतियों को ‘बेघर’, ‘नरक-दर-नरक’ उपन्यास में आसानी से देखा जा सकता है। बेघर का परमजीत यौन शुचिता की पवित्रता के संस्कार से ग्रस्त है उसके मन का अहंकार तब जागृत होता है जब उसे संजीवनी के असूर्यपश्या होने का पता चलता है और वह उसे छोड़कर कुंवारी रमा से विवाह करने को तैयार हो जाता है।
इसके अलावा ममता कालिया के उपन्यासों के पात्र धार्मिक कर्म एवं रूढ़ियों में विश्वास भी रखते हैं और उनका जीवन उसी विश्वास से परिचालित होता है। ‘बेघर’ का परमजीत अपनी रूढ़िवादी सोच के चलते ही संजीवनी से विवाह नहीं करता। उपन्यास में यौन शुचिता पर प्रश्न उठाते हुए ममता कालिया ने सार्थक विवरण प्रस्तुत किये हैं। प्रेमी परमजीत का मन संजीवनी के असूर्यपश्या न होने से घायल हो जाता है कि वह उसके जीवन का प्रथम पुरूष नहीं है। अपने अहं के कारण ही संजीवनी को छोड़ पारंपरिक तरीके से रमा के साथ गृहस्थी बसाता है किंतु अंततः स्वयं में अकेला रहकर घर के होते हुए भी बेघर हो जाता है। गोपालराय उपन्यास पर टिप्पणी कुछ इस प्रकार की है – “बेघर में मध्यवर्गीय संस्कारों और मूल्यों की मार झेलती स्त्री की नियति का अंकन किया है। परम्परागत धार्मिक नैतिक संहिताओं के चलते मध्यवर्गीय दाम्पत्य जीवन के नरक बन जाने के यथार्थ का अंकन इस उपन्यास में हुआ है।”
ममता कालिया ने भारतीय मध्यवर्गीय जीवन को जीवंत रूप में चित्रित किया है, उनका समग्र साहित्य मध्यवर्गीय जीवन की समस्याओं का दस्तावेज है। महानगरीय जीवन एवं वहां के नौकरीपेशा स्त्री-पुरूष की समस्याओं का अंकन भी उन्होंने बारीकी से किया है। उनके सभी उपन्यास भारतीय मध्यवर्गीय व्यक्तियों के संघर्ष को रेखांकित करते हैं, अपने व्यक्तित्व निर्माण और आर्थिक समृद्धि के लिए व्यक्ति निरंतर उसी दौड़ में शामिल रहते हैं जो अन्ततः उसी को तोड़ देती है। इसलिए प्रस्तुत शोध का उद्देश्य ममता कालिया के उपन्यासों में निहित सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं को मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से उजागर करना है।
हिंदी साहित्य के विस्तृत फलक पर ममता कालिया सातवें दशक की रचनाकार के रूप में उभर कर सामने आती हैं, विमर्श के दायरे से बाहर निकलकर उन्होंने बृहत्तर जीवन मूल्यों को साहित्य में अभिव्यक्ति प्रदान की है। इसके साथ ही उनके सभी उपन्यासों के पात्र तथा उसमें निहित घटनायें हमारे आसपास के जीवन से ही एकत्रित किये गए हैं, उदाहरण के लिए देख जा सकता है, ‘बेघर’ कौमार्य के मिथक को तोड़ता प्रतीत होता है तो ‘दुक्खम सुक्खम’ स्त्री अस्मिता की रक्षा के लिए विद्रोह और पीढ़ियों दे द्वन्द्व को उजागर करता है। ‘अंधेरे का ताला’ कामकाजी महिला शिक्षिका की परेशानी और शिक्षा जगत की कमियों का चित्रण करता है तथा ‘प्रेम कहानी’ चिकित्सा जगत की विसंगतियों को उजागर करता है। ये सभी परिस्थितियां हमारे आसपास आज भी इसी रूप में मौजूद है तथा इन सब परिस्थितियों से ऊपर उठकर जो मुख्य समस्या सामने आती है वह मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन से संबंधित है।
साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसमें एक ओर एक व्यक्ति की भावनाओं को मूर्त रूप मिलता है तो दूसरी ओर युग धर्म भी झांकता दिखाई देता है। साहित्य में युग की आत्मा का चित्रण हो तभी वह स्थायी साहित्य होता है। साहित्यकार आने युग की उपज होता है। उसके युग की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां उसके व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। वह जिस वातावरण में रहता है, उसका प्रभाव उसके दृष्टिकोण तथा जीवन दर्शन पर पड़ता है। कहने का मतलब यह है कि साहित्यकार समाज में रहता है तथा अपने युग के वातावरण में विकसित होता हुआ अपने वातावरण से ही अपने साहित्य के तन्तुओं का निर्माण करता हुआ उसी वातावरण को अपनी रचनाओं में चित्रित करके उसे प्रभावित करता है। ममता कालिया के साहित्य में उनका समाज, उनका युग जीवंत रूप में अभिव्यक्त हुआ है। समाज में व्याप्त विसंगतियों और मध्यवर्गीय व्यक्तियों की समस्याओं का यथार्थ चित्रण उन्होंने अपने समग्र साहित्य में किया है जो आज भी उतना ही महत्त्व रखता है जितना कल रखता था, अतः यह विषय अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है।
ममता कालिया की रचनाओं का केंद्रबिंदु समाज रहा है, उन्होंने मध्यवर्गीय जीवन की समस्याओं का विश्लेषण अपने सभी उपन्यासों में किया है। पारिवारिक सम्बन्धों का वर्तमान स्वरूप, आधुनिक परिवर्तित सन्दर्भों में दाम्पत्य सम्बन्धों की व्याख्या एवं अविवाहित स्त्री और कामकाजी महिलाओं की समस्याएं उनके प्रत्येक उपन्यास में परिलक्षित होती है, जो आज आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी आजादी के दौर व उसके बाद थी। इसके साथ ही मध्यवर्गीय शिक्षित स्त्री की अस्मितागत समस्याओं को भी पर्याप्त प्रश्रय दिया गया है। स्त्री की स्थिति का विश्लेषण, उसके दुःख-दर्द, उसके संघर्षों को स्त्री पुरूष सम्बन्ध और पारिवारिक मूल्यों के सन्दर्भ में प्रस्तुत करते हुए उसकी सम्वेदनाओं और आकांक्षाओं को वाणी दी है। उनके उपन्यासों में स्त्री अपने व्यक्तित्व से लेकर अस्तित्व तक के हर स्तर पर स्वाधीन होने के लिए निरंतर संघर्षरत है और उन्हें स्वाधीनता चाहिए संकल्प-विकल्प की, अभिव्यक्ति की, मानसिक गुलामी से छुटकारे की, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने की। इसकी अभिव्यक्ति उनके सभी उपन्यासों में देखी जा सकती है। इसलिए यह विषय अत्यंत और महत्वपूर्ण प्रतीत होता है कहने की आवश्यकता नहीं कि भविष्य में भी इतनी प्रासंगिकता के साथ उपस्थित होगा।
ममता कालिया के उपन्यासों में मध्यवर्गीय जीवन में व्याप्त स्थितियों को अनेक स्तरों पर चित्रित किया गया है जैसे बेकारी और आजीविका की तलाश में दर-ब-दर का भटकाव, जीवन मूल्यों के प्रति समर्पित व्यक्ति का मौका परस्त समझौतावादियों के सम्मुख निरन्तर निरस्त होता जाना। कर्तव्य परायण लोगों को नौकरी से निकाल देना, व्यावसायिक यांत्रिकता, और उस यांत्रिकता में व्यक्ति का घर परिवार से दूर होते जाना, कामकाजी महिलाओं का दोहरे उत्तरदायित्व से टूटना, पुरुष की देहवादी दृष्टि के परिणाम जैसी अनेक मध्यवर्गीय समस्याओं को उकेरा गया है जो आज भी समाज में ज्यों की त्यों देखी जा सकती हैं। इन सभी स्थितियों का यथार्थ और सटीक वर्णन ममता कालिया ने अपने सभी उपन्यासों में किया है। चूँकि ममता कालिया यथार्थवादी लेखिका हैं, उन्होंने कल्पना के जाल बुनने के स्थान पर समाज की सच्चाई को बेबाकी से ज्यों का त्यों अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया है इसलिए समाज की यथार्थ अभिव्यक्ति उनके साहित्य में देखी जा सकती है इसलिए यह विषय निस्संदेह अपना महत्व रखता है।
ममता कालिया का कथा साहित्य विषय वस्तु की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है तथा उसका विश्लेषण भी अनेकों दृष्टिकोण से हो चुका है और विभिन्न विश्वविद्यालयों में उनके कई शोध प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें ममता कालिया के कथा साहित्य को स्त्री चेतना, नारी विमर्श, स्त्री अस्मिता की तलाश, नारी चेतना के संदर्भ में विश्लेषित किया गया है इसके साथ ही उनके समग्र कथा साहित्य का विवेचन विश्लेषण सृष्टि और दृष्टि तथा सम्वेदना और शिल्प के दृष्टिकोण से भी किया जा चुका है।
दूसरा, विश्लेषण का आधार कही जाने वाली संबंध की श्रेणियों के द्वारा विश्लेषणात्मक अध्ययन उपन्यासों में निहित मध्यवर्गीय जीवन की स्थिति और उसकी समस्याओं को उजागर करने में सहायक होगा। इसके अंतर्गत वस्तु व घटना का निश्चित संबंध, कार्य-कारणों का अनुमानित संबंध तथा समूह और अंग का घटनात्मक संबंध का अध्ययन होता है।
तीसरा, ममता कालिया के उपन्यासों में अभिव्यक्त मध्यवर्गीय जीवन के एक एक पक्ष का विवेचन और विश्लेषण अंशोन्मुख विश्लेषण विधि से किया जा सकता है, जिसमें किसी वस्तु या तत्व का विच्छेदन करके उसके विविध अंगों का अध्ययन किया जाता है।
कमलेश (शोधार्थी)