मंजिल बस घर तक

मंजिल बस घर तक साहित्य जन मंथन

आँखों की आस है कि,
अपनो का दीदार हो जाए।
लेकिन माथे की शिकन में,
देश के पहरेदारो का खौफ़
नज़र आ रहा हैं।

कदमों की आहट भी,
शोर मचा रही है।
सुनसान सड़कें भी,
कोरोना-कोरोना चिल्ला रही है।

शेहरो के सेवादारों की,
आज शामें यू गुज़रती है।
एक वक्त की रोटी को,
उनकी आँखें तरसती हैं।

हर कदम चलना,
बीमारी से बचने का प्रयास है।
बचपन की मिट्टी,
में वापिस लिपटने की आस हैं।

पलायन करती मजदूरों की कतार,
अपने घर जाना चाहती हैं।
भूख से बिलखते लोगो की,
मंज़िल राहो में ही रह जाती हैं।

पैरो के छालों ने जब,
चलने की हिम्मत छोड़ी है।
रेल की पटडियो की आहट ने,
एक नई उम्मीद जोड़ी हैं।

मन कि बेचैनियो ने,
सहसा ही दम तोड़ा हैं।
रेल की थड़थड़ाहट ने,
कितनी ही आसो को जोड़ा हैं।

मंजिल अब दूर नहीं,
ये आँखों में सुख देता हैं।
मेरा पहला क़दम डिब्बे में,
सर झुकता-सा महसुस होता हैं।

हर कदम की आस ने,
हम सबको खूब रुलाया है।
पहुँचे मंज़िल पर तो,
घर ज़न्नत-सा पाया हैं।

ज्योति कुमारी

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