मैं मजदूर हूँ

मैं मजदूर हूँ साहित्य जन मंथन

सूरज की चिलचिलाती-धूप में,
प्रज्ज्वलित तप-तपाती दुपहरी में,
मैं बस चलता जाता हूँ ।

भूखे पेट,घिसते बेजान पैरों से,
दृढ़-संकल्प किए,पक्के इरादों से,
साथ लिए परिवारों,गठरियों को ,
बिना रुके,बिना झुके, अविचल,
मैं बस चलता जाता हूँ ।

मैंने बहु-मंजिला इमारतों,स्मारकों,
बगीचों ,फब्बारों को तराशें हैं।
अपने ही पसीने से बनाये सड़कों पर
अपने ही शहर में बेगाना हूँ ।
इन्हीं पर, मैं बस चलता जाता हूँ


मंजिलें हैं हमारी अलग-अलग
पर सभी से,दर्द के रिश्ते से जुड़ा हूँ ।
सड़कों पर चलता भारी भीड़ हूँ,
शायद इंसान नहीं, मजबूर मजदूर हूँ ।
तभी, मैं बस चलता जाता हूँ।


खता है हमारी, ये तरसाती रोटियाँ,
झपटने को उतारु हैं,बेजान बोटियां।
पेट से लाचार, हम हैं बेहाल,
भटकाती, रूलाती, सिसकाती है।
तभी तो, मैं बस चलता ही जाता हूँ।

पेट से पैर चिपकाई है अम्मा,
थके-हारे निठाल सोयें पड़े हैं बच्चे।
दूध को तरसाती,खाली कटोरियाँ,
भूख से बिलख-बिलख रोती किशोरियां।
तभी, मैं बस चलता जाता हूँ।

अपनों से मिलने को तरसता,
माँ-बापू, परिवार से दूर हूँ।
हजारों किलोमीटर नापने को बेबस,
लावारिस होने से भयभीत हूँ।
इसलिए, मैं बस चलता जाता हूँ ।

पूजा कुमारी,
एम.ए.,दिल्ली विश्वविद्यालय

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