परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व और संस्कार उपन्यास

परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व और संस्कार उपन्यास साहित्य जन मंथन

परंपरा अपने आप में एक व्यापक अवधारणा है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘बिना व्यवधान के श्रृंखला रूप में जारी रहना’ अर्थात परंपरा का सीधा अर्थ यह हुआ कि किसी विषय या उपविषय का ज्ञान बिना किसी परिवर्तन के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ियों में संचारित होना। चाहे तो इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि एक का दूसरे को, दूसरे का तीसरे को दिया जाने वाला क्रम। किंतु एक पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को हुबहू वही नहीं दे पाती जो पूर्ववर्ती पीढ़ी से वह प्राप्त करती है, उसमें से कुछ न कुछ छंट जाता है,बदल जाता है और जुड़ जाता है। परंपरा जीवंत प्रक्रिया है जो अपने परिवेश के संग्रह और त्याग की आवश्यकताओं के अनुरुप निरंतर क्रियाशील रहती है। हजारी प्रसाद दिवेदी के अनुसार :- “परंपरा का अर्थ विशुद्ध अतीत नहीं है, बल्कि एक निरंतर गतिशील जीवंत प्रक्रिया है। उसे हमें जो कुछ मिलता है, उस पर खड़े होकर आगे के लिए कदम उठाते हैं।”

लेकिन परंपरा शब्द का व्यवहार प्रायः रूढ़ि के अर्थ में किया जाता है और उसकी व्यापक अर्थवत्ता को संकुचित कर दिया जाता है। परंपरा में ना केवल परिवर्तन की संभावना होती है वरन परिवर्तन की है प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है, यह पूर्व के उत्तम गुणों का अनुसंधान कर उसे नई कसौटी पर परखने, पश्चात उसे अपनाने का कार्य करती है, परंपरा विच्छेद नहीं है और निषेध भी नहीं है, रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में कहा जा सकता है-

“परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है,
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है।”

जहां परंपरा एक परिवर्तनशील और काल सापेक्ष प्रक्रिया है वहीं आधुनिकता को समसामयिक बोध माना जाता है। आधुनिकता का अर्थ है ‘अधुना’ या इस समय जो कुछ है वह आधुनिक है परंतु आधुनिकता का अर्थ केवल यही नहीं है, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आधुनिकता के तीन लक्षण स्पष्ट किए हैं ‘ऐतिहासिक दृष्टि, इसी दुनिया में मनुष्य को सब प्रकार की विधियों और पराधीनता से मुक्त करके सुखी बनाने का आग्रह और व्यक्ति मानव के स्थान पर समष्टि मानव या संपूर्ण मानव समाज की कल्याण कामना।’

आधुनिकता एक सोच है, एक विचार है, जो व्यक्ति को इस दुनिया के प्रति अधिक जागरुक व मानवीय दृष्टिकोण से जीने का सही मार्ग दिखलाती है। आज जीवन का हर क्षेत्र आधुनिकता से परिपूर्ण है। प्राचीन परंपराओं तथा रुढ़िवादिता का त्याग करके वर्तमान समय में उत्पन्न संसाधन एवं जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक शैली व विचारधाराओं पर आधारित जीवन शैली अपनाना आधुनिकता कहलाता है। डॉ. नगेंद्र ने आधुनिकता के संदर्भ में आधुनिक शब्द का तीन अर्थों में प्रयोग किया है – समय सापेक्ष, नए का वाचक और विशिष्ट दृष्टिकोण का या जीवन दर्शन का वाचक। रामधारी सिंह दिनकर ने आधुनिकता को परिभाषित करते हुए लिखा है :- “आधुनिकता एक प्रक्रिया का नाम है, यह प्रक्रिया अंधविश्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है, यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है, यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है।”

आधुनिकता और परंपरा परस्पर संबंध धारणायें हैं इनको अलग नहीं किया जा सकता। आधुनिकता के वास्तविक दर्शन के लिए परंपरा की प्रमाणिकता आवश्यक है अर्थात आधुनिकता की समझ के लिए परंपरा का ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना किसी प्यासे व्यक्ति के लिए पानी की आवश्यकता। जीवंत परंपरा आधुनिकता के मार्ग में कभी बाधक ना बनकर उसे दिशा बोध देती है, साथ ही आधुनिकता की मौलिक उपलब्धियों के कालगत सत्य को विश्वसनीयता प्रदान करती है आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में :- “बुद्धिमान आदमी एक पैर से खड़ा रहता है, दूसरे से चलता है।°°°° खड़ा पैर परंपरा है, चलता पैर आधुनिकता। दोनों का पारस्परिक संबंध खोजना बहुत कठिन नहीं है। एक के बिना दूसरे की कल्पना ही नहीं की जा सकती।”

संस्कृत प्राकृत और तमिल के बाद भारत की सबसे प्राचीन भाषा कन्नड़ है। जिस समय भारतीय साहित्य पर अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव पड़ा ठीक उसी समय कन्नड़ साहित्य भी इस प्रभाव से अछूता नहीं रहा। अन्य भारतीय भाषाओं की तरह कन्नड़ का भी अंग्रेजी से जो टकराव हुआ उसने राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया और कन्नड़ को उसका गौरवपूर्ण स्थान दिलाने का संघर्ष आरंभ हुआ। इस काल में संस्कृत ग्रंथों का ही नहीं बल्कि अंग्रेजी कृतियों का अनुवाद भी कन्नड़ भाषा में हुआ तथा कन्नड़ साहित्य आधुनिक काल में नवोदय, प्रगतिशील नव्य, बन्ध्य, दलित आदि धाराओं में विस्तार पा सका।

नव्य युग का सूत्रपात कन्नड़ कवि गोपाल कृष्ण, कृष्ण कोलालु तथा हिमागिरिय कॉन्द्रा से माना जाता है,पर उस आंदोलन को कहानी एवं उपन्यास की परिधि से जोड़ने का काम कन्नड़ साहित्य की नई पीढ़ी ने किया जिनमें अनंत मूर्ति को नव्या आंदोलन के प्रणेताओं में एक माना जाता है। अनंत मूर्ति के अतिरिक्त शांतिनाथ देसाई, यशवंत चित्तल तथा भैरप्पा नव्य आंदोलन के लोकप्रिय स्वर रहे हैं। ये सभी लेखक अपने सांस्कृतिक परिवेश और परिस्थितियों में व्यक्ति स्वातंत्र्य और उसके अस्तित्व के प्रश्नों से मुखातिब होते हैं।

नव्य का अर्थ है नया या आधुनिक। इस नव्य आंदोलन से जुड़े रचनाकार परंपरा और आधुनिकता को दो अलग-अलग रूपों ने नहीं बल्कि एक ही प्रक्रिया के दो हिस्सों के रूप में देखते हैं और अपनी परंपरा में जाकर आधुनिकता को परिभाषित करने की कोशिश करते हैं इस कोशिश में वे कभी जाति, वर्ग और लिंग के सवालों से टकराते हैं और कभी अपनी रचनाओं में अपना आत्मान्वेषण करते हैं डी आर नागराज ने अनंत मूर्ति के ‘भव’ उपन्यास की भूमिका में लिखा है :- “आधुनिक कन्नड़ साहित्य की गौरवशाली परंपरा के निर्माण में दो परस्पर विरोधी समानांतर मत साथ साथ सक्रिय रहे हैं – जैसे वैज्ञानिक बुद्धिवाद और रहस्यात्मक अंतः प्रज्ञावाद, धार्मिक अतिवाद और मानवतावादी रुढ़िवाद।”

यू आर अनंत मूर्ति के व्यक्तित्व के निर्माण में परंपरागत जीवन पद्धति और आधुनिक ज्ञान विज्ञान दोनों की अहम भूमिका रही है कुल संस्कार से पारंपरिक ब्राह्मण होते हुए वे अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व में पूरी तरह आधुनिकतावादी हैं उनके व्यक्तित्व पर सबसे अधिक प्रभाव उनके पिता का पड़ा, उनके पिता कभी पूजा पाठ में मगन, दिखते कभी संपति के मामलों के लिए कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते रहते और कभी गांधीजी की ‘हरिजन पत्रिका, लाकर गांव में सब को सुनाते। अनंत मूर्ति के अनुसार उनके पिता विरोधाभासों उसे भरे हुए थे पूर्व और पश्चिम का टकराव उनके पिता के पूरे व्यक्तित्व में था। बाद में यही टकराव परंपरा और आधुनिकता, नैतिकता अनैतिकता के द्वंद्व और उनकी पुनर्व्याख्या के रूप में उनके उपन्यासों में दिखाई देता है।

अनंत मूर्ति का समस्त लेखन अतिवादी तथा स्व चिंतन या आत्मान्वेषण के रूप में विभाजित है,जो विरोधी समझी जाने वाली परंपरा एवं आधुनिकता के अंत: संबंधों की व्याख्या करता है क्योंकि यह दोनों एक दूसरे की विरोधी नहीं पूरक होती हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में :-“परंपरा से आधुनिकता का वैसा विरोध नहीं होता दोनों ही गतिशील प्रतिक्रियाएं हैं दोनों में विरोध केवल यह है कि परंपरा यात्रा के बीच पड़ा हुआ अंतिम चरण है जबकि आधुनिकता आगे बढ़ा हुआ गतिशील कदम है।”७ किंतु इनका परस्पर संबंध यही है कि एक के बिना दूसरी की परिकल्पना नहीं की जा सकती परंपरा एक गतिशील प्रक्रिया है जो सतत मूल्यांकन के चलते कभी भी आधुनिकता की विरोधी ना होकर उसकी पूरक होती है।

ब्राह्मण कुल में पले बढ़े और इंग्लैंड में पढ़े होने के कारण अनंत मूर्ति में एक तरफ रुढ़िवादी ढकोसलों की भरपूर समझ है तो दूसरी और उसे उकेरने की तीखी दृष्टि भी उनके पास है। चाहे उनका संस्कार उपन्यास हो या फिर उनकी घट श्राद कहानी सभी में भारतीय समाज और खासकर स्वातंत्र्योत्तर युग की भारतीय पीढ़ी को मथने वाले तनाव का बेहद संवेदनशील चित्रण हुआ है तथा व्यक्ति स्वातन्त्र्य और उस के अस्तित्व के प्रश्नों पर विचार किए हैं। डी आर नागराज ने लिखा है: – “उनकी संपूर्ण रचनात्मक यात्रा एक क्रुद्ध विद्रोही हवा से प्रारंभ होकर पारंपरिक रूढ़ियों से मुक्त मानवता वादी लेखक तक की महान यात्रा है।”

अनंत मूर्ति का दृष्टिकोण समाजवादी तथा उदारतावादी था और इस दृष्टिकोण का प्रभाव उनके साहित्य पर भी पड़ा है उनका संस्कार उपन्यास ब्राह्मणवादी मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की भर्तस्ना करता है और ब्राह्मणवाद, अंधविश्वासों तथा रूढ़िगत संस्कारों पर अप्रत्यक्ष और पैनी चोट करता है तथा यथार्थवादी उपन्यास की तरह एक सामाजिक समस्या को उठाता है यह केवल ब्राह्मणवाद की रूढ़ियों से विद्रोह करने वाले नारणप्पा के दाह संस्कार की समस्या को ही नहीं प्रस्तुत करता वरन ब्राह्मणों के दुचित्तेपन,लोभ की प्रवृत्ति को भी सामने लाता है। संस्कार उपन्यास शास्त्रवाद, ब्राह्मणवाद, वर्जनाओ तथा धर्म के आवरण पर प्रहार करता हुआ कुछ ऐसे सवाल उठाता है – धर्म क्या है? धर्मशास्त्र क्या है? क्या इनमें निहित आदेशों में मनुष्य की स्वतंत्र सत्ता के हरण का सामर्थ्य हैं या होनी चाहिए? – जिनसे यह एक युगांतरकारी उपन्यास बन जाता है।

अनंत मूर्ति की मानतावादी रचना यात्रा का पहला पड़ाव संस्कार उपन्यास है यह उस समय लिखा गया जब देश आजाद होने वाला था लेकिन भारतीय समाज एक साथ कई युगों में जी रहा था परंपरा व आधुनिकता, आस्था- अनास्था, पाप पूण्य, नैतिकता अनैतिकता, लोकशास्त्र और जाति व वर्ण को लेकर द्वंद्व लगातार चल रहे थे संस्कार इन सभी द्वंदों के माध्यम से व्यक्ति स्वतंत्रता के सवाल और उसकी पहचान के संकट को अभिव्यक्त करता है यथार्थवादी ढांचे में लिखा गया यह उपन्यास 3 खंडो में विभाजित हैं जो क्रमशः दुर्वासा पुर के रूढ़ सामाजिक जीवन अस्तित्व के संकट और स्वत्व की तलाश की यात्रा को प्रस्तुत करता है।

संस्कार में प्राणेशाचार्य और नारणप्पा दो मुख्य चरित्र हैं तथा यह दोनों उपन्यास में दो जीवन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए उपन्यास के मुख्य द्वंद्व परंपरा और आधुनिकता के प्रतिनिधि के तौर पर इन्हें देखा जा सकता है प्राणेशाचार्य जहां परंपरा के प्रतिनिधित्व ब्राह्मण के रूप में हैं वहीं नारणप्पा आधुनिकता का समर्थक। मिनाक्षी मुखर्जी में इन दोनों के बारे में लिखा है कि:- “अगर नारणप्पा, प्राणेशाचार्य का हेकड़-विरोधी प्रतिबिम्ब (एंटी सेल्फ) है, तो पुत्ता के रूप में अचार्य का एक प्रतिपक्ष (एंटीथीसिस) सामने आता है।”

लेकिन उपन्यास में अनंतमूर्ति ने कहीं भी किसी भी जीवन पद्धति को अंतिम और श्रेष्ठ नहीं बताया और ना ही ऐसा प्रस्तुत किया। इसी कारण उनके ये दोनों पात्र का प्राणेशाचार्य और नारणप्पा विपरीत जीवन मूल्यों के प्रतिनिधि होकर भी एंटी चरित्र नहीं बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं दोनों ही पात्र परंपरा और आधुनिकता का पक्ष लेते हुए उसके द्वंद्व को प्रस्तुत करते हैं। एक संयम और त्याग की अति है जो परंपरा का पक्ष लेता है तो दूसरा भोग और विलास की अति के साथ जीता हुआ आधुनिकता की ओर अग्रसर है और जब दोनों का आमना सामना होता है तो शास्त्रवाद, ब्राह्मण वाद, रूढ़ियों और वर्जनाओं पर नारणप्पा द्वारा तीखे व्यंग्य प्रस्तुत किए जाते हैं, कुमार सुशांत ने संस्कार के विषय में लिखा है :- “जो व्यक्ति अपने जीवन में निडरता पूर्वक अपनी बात कह सकता है वही व्यक्ति संस्कार जैसे आधुनिक उपन्यास का लेखक हो सकता है और समाज की घिसीपिटी परंपराओं का विरोध कर सकता है।”

संस्कार की शुरुआत दुर्वासापुर गांव की ब्राह्मण बस्ती के जड़ता भरे जीवन तथा प्राणेशाचार्य जी की तय शुदा दिनचर्या से होती है, ब्राह्मणों के अगवा प्राणेश आचार्यजी के जीवन में कोई बदलाव नहीं उनकी दिनचर्या अपरिवर्तनीय है तथा उनका जीवन एक ही ढर्रे पर चलता है। ‘ 20 वर्षों से लगातार एक ढर्रे में बंधा कार्यकलाप सुबह का स्नान, संध्या वंदन, रसोई पत्नी की दवाई, फिर नदी के उस पार जाकर मंदिर में हनुमान जी की पूजा- ऐसी बंधी दिनचर्या थी जिसमें कभी कोई चूक ना होती थी।’

प्राणेशाचार्य के जीवन में कोई बदलाव ना होना इस बात का परिचायक है कि वे पुरातन परंपराओं के पालन करता हैं। जो व्यक्ति बंधनों से मुक्त होता है उसी के जीवन में बदलाव होते हैं किंतु प्राणेशाचार्य जी का जीवन बीस वर्षों से एक ही ढर्रे पर चल रहा है उसमे कोई भी बदलाव नहीं आया इसका कारण उनका परंपरा और रूढ़ियों में बंधा होना है। वे उपन्यास में वर्णित ब्राह्मण समाज के ही आदर्श नहीं हैं वरन परंपराओं और रूढ़ियों के भी आदर्श हैं। गांव में केवल प्राणेशाचार्य जी का जीवन ही दिनचर्या में नहीं बंधा बल्कि गांव के सभी ब्राह्मणों की जीवनचर्या एक जैसी और एक निश्चित ढर्रे पर बंधी है तथा लोगों का जीवन कर्मकांडों से तथा त्योहारों से और भोजन में मोसमी बदलावों से ही संचालित होता है। ब्राह्मणों के जड़ता भरे जीवन पर टिप्पणी करते हुए मीनाक्षी मुखर्जी लिखती हैं कि:- “घरों के पीछे से तुंगभद्रा नदी निकलती है लेकिन ऐसा लगता है उसके प्रवाहमान जल का ब्राह्मणों के बंधे हुए जीवन से कोई संबंध ही नहीं है यहां समय रुका हुआ है और सगोत्रीयता एवं रंजिशें पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाती हैं।इंसानी रिश्ते सीढ़ियों में बंधे हुए हैं और गुणों को तय सुदा पैमानो से मापा जाता है।”

यहां के रहने वाले ब्राह्मण लोभी, स्वार्थी, ईर्ष्यालु और संकुचित मानसिकता के हैं उनका ब्राह्मणत्व इस बात टिका हुआ है कि वे सैकड़ो हजारों साल पुरानी परंपराओं तथा नियमों का पालन करते हैं और नहीं जानते कि वैसा पालन क्यों कर रहे हैं उन्हें बस इतना मालूम है कि वे इन नियमो से भटके तो अनर्थ हो जाएगा इसलिए नियमों और परंपराओं का पालन करके वे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं।

दुर्वासा पुर के जड़ता भरे जीवन में नारणप्पा की मृत्यु से हलचल पैदा होती है उसकी मृत्यु अग्रहार के सभी ब्राह्मणों के शास्त्रीय जीवन के नीचे दबे लालच, ईर्ष्या,लोभ और भूख को उजागर कर देती है और साथ ही अग्रहार की मूल समस्या नारणप्पा के शव की -अंतिम संस्कार की – प्रस्तुत है :- ‘पहला प्रश्न तो यह है कि नारणप्पा का शव संस्कार होना चाहिए। उसकी कोई संतान नहीं है। किसी अन्य को उसका संस्कार करना चाहिए यह दूसरा प्रश्न है।’ लेकिन अग्रहार के ब्राह्मणों के सामने प्रश्न यह खड़ा हुआ कि नारणप्पा के शव का संस्कार होना भी चाहिए या नहीं क्योंकि नारणप्पा ने वे सभी काम किए जो ब्राह्मण धर्म में निषिद्ध थे लेकिन ‘नारणप्पा सतकुल में जन्मे ब्राह्मण की तरह नहीं रहा।°°°°उसके द्वारा ब्राह्मणत्व त्याग देने पर भी ब्राह्मणत्व ने उसे नहीं त्यागा,उसका बहिष्कार नहीं किया। शास्त्रों के अनुसार चूंकि वह बिना बहिष्कृत हुए मरा है इसलिए वह ब्राह्मण रहकर ही मरा है’ इसलिए उसका शव संस्कार होना चाहिए। ब्राह्मणों के हाथों ही होना चाहिए था।

नारणप्पा ने अपने ब्राह्मणत्व का त्याग कर दिया था लेकिन ब्राह्मणत्व ने उसका त्याग नहीं किया था किंतु प्राणेशाचार्य जी उसे सुधाकर सन्मार्ग पर लाकर अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहते थे और दूसरा नारणप्पा ने स्वयं घोषित कर दिया था कि उसे बहिष्कृत किया तो वह मुसलमान बन जाएगा, वह कहता है :- “बहिष्कार करके तो देखो, मैं मुसलमान बन जाऊंगा और तुम सबको खंभे से बांधकर तुम्हारे मुंह में गोमांस ठूस दूंगा और देखूंगा की तुम्हारा ब्राह्मणत्व मट्टी मट्टी हो जाए।”

ब्राह्मणत्व के प्रति नारणप्पा का गुस्सा अकारण नहीं था बल्कि वह अधिकतर ब्राह्मणों के दुचित्तेपन, कुंठित भावनाओं, लोभ की प्रवृत्ति से भली-भांति परिचित था। वह स्वयं उनकी लोलुपता का शिकार हुआ था और वह स्थितियों से समझौता करने वाले कमजोर लोगों में ना था इसलिए अपने अस्तित्व को महत्व देता है तथा ब्राहमणवादी रूढ़ियों की आलोचना करता हुआ वह ब्राह्मणत्व को त्याग देता है और प्राणेशाचार्य जी से कहता है:- “यदि मैं ब्राह्मण बना रहता तो आपके गरुणाचार्य अब तक मुझे आचमन के साथ ही ली चुके होते और जायदाद के लालच से गंदगी में पड़े सिक्के को जीभ से चाट कर उठा लेने वाला वह लक्ष्मण अपनी एक और कंकाल सी साली मेरे गले मर चुका होता।”

अपने आतताइयों को नीचा दिखाने के लिए नारणप्पा हर वह काम करता है जो उनके धर्म में निषिद्ध थे – शराब पीना, मांस खाना, पवित्र जल की मछलियों को पकड़ना तथा उनका भक्षण करना, शुद्रा का सहवास, मुसलमानों के साथ भोजन करना। वह अग्रहार में ब्राह्मणत्व के नाम पर हो रहे ढकोसलों, जाति और धर्म के नाम पर पनपे शुद्धतावाद आदि की आलोचना करता है और इस तरह अपने सजातियों के प्रति उसका गुस्सा ब्राह्मणत्व के प्रति विद्रोह में बदल जाता है क्योंकि वह आधुनिकतावादी विचारों से संचालित होता है। उसके सामने दो ही रास्ते थे या वह अपने ब्राह्मणत्व की रक्षा कर ले या अपने अस्तित्व की। जब उसे ज्ञात हो गया कि ब्राह्मणत्व की रक्षा करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकता तो उसने ब्राह्मणत्व त्याग दिया।

प्राणेशाचार्य उपन्यास में शुरु से लेकर अंत तक गतिशील रहते हैं। मृत जड़ अग्रहार के प्रतिनिधि पप्राणेशाचार्य के लिए उनका जीवन एक तपस्या से अधिक कुछ नहीं है इसलिए अग्रहारी ही नहीं बल्कि समस्त ब्राह्मणत्व की रक्षा का दायित्व उनके कंधो पर है इसीलिए नारणप्पा द्वारा जल की मछलियों के पकड़े जाने से अंधविश्वास की उपेक्षा हुई थी और उन्हें भय हुआ कि ‘नारणप्पा के ऐसा करने पर शूद्र आदि लोगों के मन में से भी न्याय और धर्म का भय जाता रहेगा। देवी भी से ही सही सामान्य जनों में कुछ थोड़ी सी तो धर्म बुद्धि अभी तक बच रही है। अब वह भी नष्ट हो जाएगी तो°°°? इस धरती की रक्षा करने की शक्ति तब कहां से आएगी।’

समाज की संरचना को बचाए रखने के लिए ही वे सामान्य जनों के बीच ब्राह्मणत्व को बचाए रखना चाहते हैं और उसकी परिभाषा देते हुए कहते हैं कि ‘औरों का पाप ढोने के लिए ही ब्राह्मणों का जन्म हुआ है’ वास्तव में यह समाज की सत्ता को बचाए रखने के लिए उनका अहंकार था, जो परंपरा के रूप में ब्राह्मणत्व में निहित है। वे ऐसे ब्राह्मणों के प्रतिनिधि थे जो धर्म को ही मुक्ति का अंतिम मार्ग मानते थे, लेकिन अग्रहार के ब्राह्मणों की तरह लोभी या दम्भी नहीं थे।

प्राणेशाचार्य के आदर्शवाद और नारणप्पा के बेहूदापन के संघर्ष के बीच यह उपन्यास भारतीय समाज का रूप धारण कर लेता है। नारणप्पा प्राणेशाचार्य को संबोधित करके सारे ब्राहमणवादी संस्कारों के साथ-साथ आदर्शवादी संस्कारों को भी चुनौती देते हुए कहता है :- “देखते हैं आचार्य जी अंत में आप जीतते हैं या मैं? कितने दिन तक आपका ऐसा ब्राह्मणत्व चलेगा ?°°° मैं ब्राह्मणत्व का नाश करके ही हटूंगा।” प्राणेशाचार्य जी से नारणप्पा का कोई निजी वैर नहीं था, वे अग्रहार के ही नहीं पूरे ब्राह्मण समाज के ब्राह्मणत्व के प्रतीक थे और इस कारण ब्राह्मणत्व को नाश करने का उसका संकल्प तभी पूरा होता जब वह उन्हें परास्त करता इसलिए वह ब्राह्मण धर्म की निंदा करने लगा और जीत भी अंत में उसी की होती है क्योंकि उसके विचार आधुनिक है वह कहता है :- “अब आपका शास्त्र धर्म नहीं चलेगा। आगे आएगा कॉन्ग्रेस का राज। अछूतों को देव मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार आपको देना पड़ेगा।”

प्राणेशाचार्य के अध्यात्म जीवन पद्धति के विपरीत नारणप्पा स्वच्छंद, सौंदर्य प्रेमी और भौतिकवादी जीवन दृष्टि का समर्थक है वह जिंदगी जीने का सही तरीका जानता है इसीलिए जिंदगी का आनंद अंतिम क्षण तक लेना चाहता है यह आज का आधुनिक मानव है जो कहता है कि ‘अपना धर्म अपने पास ही रहने दीजिए, एक बार ही तो जिंदगी मिलती है। मैं चार्वाक का वंशज हूं : ‘ऋणं कृत्या घृतं पिवेत’।°°°जी में आए ब्राह्मणत्व का सारा गौरव मैं एक औरत के मिलने वाले सुख पर लुटा दूं’ और अपनी बातों की पुष्टि वह परंपरा से उदाहरण देकर ही करता है क्योंकि परंपरा के बिना आधुनिकता की कल्पना ही संभव नहीं। उसे परंपरा का ज्ञान है और वह उसकी जड़ता को परिवर्तित करना चाहता है।

नारणप्पा वेद पुराणों को पढ़ने से अधिक उनके अर्थ ग्रहण पर बल देने की बात करता है क्योंकि पढ़ना पढ़ाना एक बात है और उसे जीवन में उतारना दूसरी। प्राणेशाचार्य ने जीवन में जो पढ़ा और पढ़ाया उसे अपने जीवन में उतार ना सके जबकि नारणप्पा ने जो थोड़ा बहुत ज्ञान पाया उसे जीवन में उतारा भी और जिया भी,उदाहरण के लिए अनंतमूर्ति ने संस्कार उपन्यास जैसे आधुनिक उपन्यास को लिखा ही नहीं उसे जिया भी है। इसी कारण नारणप्पा अपने जीवन में व्यावहारिक था और गांव के लोगों पर भी ही इसका प्रभाव पड़ता है। वह प्राणेशाचार्य जी से कहता है :- ‘आप रस और कामाख्यानों से पूर्ण पुराणों का पाठ करते हैं किंतु उपदेश देते हैं नीरस जीवन जीने का।” स्पष्ट है कि प्राणेशाचार्य जी व्यवहारिक नहीं थे वे किताबी ज्ञान को महत्व देते थे, उसे व्यवहार में लाने की सलाह देने की जगह संयम और त्याग पर बल देते थे और इसी कारण उन्हें धार्मिक भग्नता- अंधविश्वास का टूटना- की स्थिति का सामना करना पड़ता है। जब वे हनुमान जी से संशय की स्थिति में हल लेने जाते हैं तब उपन्यासकार कहता है :- “हनुमान जी किसी बात पर भी ना पसीजे,कुछ भी जैसे ना सुना, हाथ में उठाएं पर्वत की तरफ मुँह किये खड़े रहे ।°°° वे(प्राणेशाचार्य जी) उठ खड़े हुए। फिर धीमे धीमे कदमों से मंदिर से बाहर निकल आए।”

जिस समस्या का समाधान उन्हें व्यवहारिक ज्ञान से करना चाहिए था उसे करने के लिए वे किताबी ज्ञान की तरह अव्यवहारिक प्रक्रिया अपनाते हैं और हनुमान जी को मंत्र उच्चारण से खुश करना चाहते हैं यहां अनंत मूर्ति यह बताना चाहते हैं कि हार हमेशा अव्यवहारिक ज्ञान की ही होती है।

इस तरह प्राणेशाचार्य द्वारा प्रतिपादित जीवन मूल्यों की हार हो जाती है क्योंकि वह व्यवहारिक नहीं है जबकि नारणप्पा व्यावहारिक होते हुए जीत जाता है उसके जीवन मूल्यों की जीत होती है बेशक वह मरने के बाद ही क्यों ना हुई हो,मीनाक्षी मुखर्जी ने लिखा है :- “नारणप्पा की मौत उसके हार के बजाय वास्तव में जीत साबित होती है।” उसकी मृत्यु के बाद उसके जीवन मूल्य समाप्त नहीं हो जाते बल्कि प्राणेशाचार्य ही उसे आत्मसात कर लेते हैं तथा नारणप्पा की मृत्यु के बाद भी उसके विचार, उसकी जीवन दृष्टि, उसके जीवन मूल्य उनके परिवर्तित व्यक्तित्व में जीवित रहते हैं।

प्राणेशाचार्य जीवित रहते हैं लेकिन उनका स्वत्व मर जाता है और नारणप्पा मर कर भी प्राणेशाचार्य जी में जीवित रहता है वस्तुतः यह प्राणेशाचार्य जी के नारणप्पा में तब्दील होने की कथा है अर्थात परंपरा की आधुनिकता में परिवर्तन की कथा लेकिन मनुष्य कितना भी आधुनिक हो जाए उसका मूल (परंपरा) उसे कभी नहीं छोड़ता उसे कभी ना कभी अपने मूल (परंपरा) में लौटना ही पड़ता है जैसे प्राणेशाचार्य उपन्यास में जितना अपने ब्राह्मणवाद से पीछा छुड़ाना चाहते हैं और दुर्वासापुर से जाते हैं फिर उपन्यास के अंत में उन्हें वही लौटना पड़ता है, कुमार सुशांत के शब्दों में :- “संस्कार उपन्यास केवल मनुष्य के मरने के बाद की जाने वाली संस्कार की कथा नहीं है और ना ही यह पुरातन रूढ़ियों और परंपराओं के संस्कार सीखकर उनके जड़ पालन की कथा है बल्कि सही मायने में संस्कार मनुष्य को संस्कृत कर स्वभाविकता में जीने की कथा है अपने मूल (जड़) के साथ सम्बद्ध होकर नई सोच को अपनाने की कथा है तथा पुराने संस्कार (पुरानी सोच) तथा नए संस्कार (आधुनिक सोच) के बीच सामंजस्य रखकर जीने की कथा है।”

इस तरह प्राणेशाचार्य और नारणप्पा परस्पर विरोधी नहीं वरन परस्पर पूरक थे क्योंकि परंपरा ही आधुनिकता को आधार देती है, उसे शुष्क और नीरस बुद्धि विलास बनने से बचाती है। यदि परंपरा ही न होती तो आधुनिकता की अवधारणा ही ना आती। आज जो आधुनिक होता है वह कल कट छंट कर परम्परा में ही समाहित हो जाता है मीनाक्षी मुखर्जी के शब्दों में :- “नारणप्पा और आचार्य दोनों ही कुछ मूल्यों की विकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं – एक संयम, नियंत्रण तथा आत्मदान के मूल्यों की विकृति का और दूसरा इंद्रियों की स्वच्छंदता के मूल्यों की विकृति का। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं इसलिए लेखक लगातार उनके नाम जोड़े में रखता है और उन्हें करीब-करीब बराबर की लड़ाई का प्रतिद्वंदी बनाता है।” परंपरा आधुनिकता का यह द्वंद शुरू से ही उपन्यास में दिखता है क्योंकि लेखक स्वयं परंपरा से जुड़ा होकर भी आधुनिक है।

संदर्भ ग्रन्थ

१. संस्कार- यू आर अनंतमूर्ति
२.परम्परा और आधुनिकता-हजारी प्रसाद द्विवेदी(निबन्ध)
३. परम्परा-रामधारी सिंह दिनकर(कविता)
४. रिएलिटी एन्ड रियलिज्म:संस्कार – मीनाक्षी मुकर्जी (लेख)
५. संस्कार (लेख) कुमार सुशांत

कमलेश ( शोधार्थी )

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