प्रेमचंद कृत ‘निर्मला’ उपन्यास का मनोवैज्ञानिक चित्रण

प्रेमचंद कृत ‘निर्मला’ उपन्यास का मनोवैज्ञानिक चित्रण साहित्य जन मंथन

मानव- मन एक अतल सागर के समान है, जिसकी अथाह गहराईयों को नापने का प्रयास बहुत समय से होता रहा है| प्रत्येक मानव को प्रकृति द्वारा लगभग एक समान आकार–प्रकार, अंग –विन्यास, उनका व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त होने पर भी उनके रास्ते, उनका स्वभाव, उनका अपना–अपना दृष्टिकोण होता है| इन विभिन्नताओं का कारण मानव का मन है क्योंकि मनोविज्ञान मन का विज्ञान है, यह मानव मन की विभिन्न दशाओं का अध्ययन प्रस्तुत करता है|

कुछ विद्वान इसे मानव की जिज्ञासा का प्रतिफलन ही मानते है क्योंकि मानव सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ तथा चिंतनशील प्राणी है | वह इस दृश्यमान जगत की उत्पति और विकास क्रम को जानना चाहता है | जानने की यही जिज्ञासा मनोविज्ञान कहलाता है| अर्थात् मनोविज्ञान का शाब्दिक अर्थ है, “मन का विशेष ज्ञान” जिसको अंग्रेज़ी में साइक्लोजी कहते है अर्थात् ‘आत्मा की चर्चा’| मन का विशेष ज्ञान इसी के संदर्भ में भारतीय ग्रंथों में मन को अनेक रूपों में विश्लेषित किया गया है, ऋग्वेद में काम को मन का रेतस या मुलबिज के रूप में माना गया है, श्री भगवद्गीता में मन को अत्यंत चंचल, अतीव, दृढ़ बताया गया है| साथ ही साथ वायु के समान इसको वश में करना सदैव दुष्कर कहा गया है| वैसे ही योगावाशिष्ट और दर्शन में इसका उल्लेख किया गया है|

साहित्य का मनोविज्ञान से अनन्य संबंध है अर्थात् साहित्य समाज का दर्पण होता है और मनुष्य सामाजिक प्राणी है| मनुष्य के सामाजिक क्रियाकलापों एवं भावात्मक प्रवृतियों की अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों में से एक उत्कृष्ट रूप साहित्य है, तभी तो साहित्य में मनोवैज्ञानिक भावात्मक प्रवितिया का अध्ययन करता है| इसलिए हमारी यह धारणा है कि साहित्य का अध्ययन के लिए साहित्य शास्त्र के अनतरण उसका निकटतम शास्त्र मनोविज्ञान ही है| साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मानदंड एवं उसके मूल्यांकन के आधार पर भी प्राय: मनोवैज्ञानिक पर आश्रित होते है |

हिंदी साहित्य के इतिहास की लोकप्रिय विधा उपन्यास है और इन उपन्यासों में मानोविज्ञान का चित्रण प्रेमचन्द जी से पहले ही लेखन में आ गया था जैसेकि गौरीदत्त के ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ में स्प्ष्ट हुई है इनके अलावा श्रद्धाराम फिल्लौरी की ‘भाग्यवती’ में मनोविज्ञान की व्याख्या के आधार पर बाल विवाह का विरोध किया गया है | लेकिन मनोविज्ञान का आरंभ उपन्यास में प्रेमचंद युग से ही हुआ | सुख दुःख जैसे विभिन्न मानसिक भावों से पूर्ण मानव परिस्थितियों से संघर्ष करके जय-पराजय अनुभव करने की स्थिति को प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया है |

आधुनिक हिंदी उपन्यास साहित्य में उपन्यास के सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है | उनके उपन्यास निर्मला, गोदान, रंगभूमि, कर्मभूमि आदि रचना जैसे उपन्यास हिंदी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं | निर्मला उपन्यास एक चरित्र प्रधान उपन्यास है, जो भारतीय नारी जीवन की एक दुःख-दर्द पूर्ण करुण कहानी है| यह उपन्यास दहेज़ और अनमेल विवाह की सामाजिक समस्या पर आधारित है, अनमेल विवाह शारीरिक और मानसिक दोनों स्तर पर इस उपन्यास में दिखाया गया है | जिसमें पात्र का व्यवहार बदल जाता है अर्थात निर्मला बाबू उदयभानु की सोलह वर्षीय कन्या का विवाह पैतीस वर्षीय बूढ़े तोताराम से हो जाता है और यही से प्रारंभ होता है निर्मला के मन में आतंरिक द्वंद | बाबू तोताराम उसके शरीर को पाना चाहता है, उसके प्रेम को पाना चाहता है, परन्तु आतंरिक द्वंद अर्थात् साइकिक एम्पोट्स के कारण निर्मला अपने बूढ़े पति को पिता के रूप में देखती है| जिससे अपनी देह चुराने लगती है|

निर्मला साहसी, आत्मनिर्भर बालिका है, उसके जीवन की समस्याओं के कारण उसके मन में उधेड़–बुन होती है और उसका व्यवहार बदलने लगता है| जिसे इस उदाहरण द्वारा समझ सकते है– निर्मला कहती है कि “मैं इनकी सेवा कर सकती हूं, सम्मान कर सकती हूँ, लेकिन वह नहीं कर सकती, जो मेरे से नहीं हो सकता | अवस्था का भेद मिटाना मेरे वश की बात नहीं | आखिर यह मुझसे क्या चाहते हैं– समझ गई |” प्रेमचंद ने उपन्यास में निर्मला के मन का कितना स्पष्ट मनोवैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया है | बूढ़े तोताराम को अपने बड़े पुत्र मंसाराम और नवयुवती पत्नी निर्मला के संबंधों को लेकर शंका होती है | यह शंका पूरे परिवार को नष्ट कर देता है, जिससे निर्मला मंसाराम के प्रति अपना व्यवहार क्रूर कर देती है | इस तरह निर्मला का निर्मल मन कहीं- कहीं इतना क्रूर हो जाता है कि उसके व्यवहार को पूर्णतः बदल देता है |

प्रेमचंद ने उपन्यास में निर्मला के मन में मंसाराम के प्रति भाव को बड़े ही सहज और मनोवैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किया है | जब वह अपनी छोटी बहन कृष्णा की शादी में जाती है तब कृष्णा निर्मला से पूछती है कि “मंसाराम को तुम भी बहुत प्यार करती थी ?” इसपर निर्मला उसके सौंदर्य का वर्णन इस तरह करती है कि इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह ममत्व का प्रेम नहीं है बल्कि हम उम्र की दहलीज पर उतरते दो लोगों का आकर्षण है एक- दूसरे के प्रति | ऐसा किसी पात्र का विश्लेषण प्रेमचंद ही कर सकते है | अंतर्मन से न चाहते हुए भी निर्मला को प्रेम का अभिनय करना पड़ता है वह दोहरा जीवन व्यतीत करती है | मंसाराम की मृत्यु निर्मला के मन को और झनझोर कर रख देता है | जियाराम का चोरी करना, जिससे उसके मन में घुटन उत्पन्न होती है और वह घर छोड़ देता है | साथ ही साथ सियाराम साधू के साथ चला जाता है| इससे निर्मला का मन टूट जाता है | वह स्वयं को आरोपित करने लगती है कि बच्चों की अगर वह मानसिकता को समझती तो आज घर का स्वरुप ऐसा नहीं होता | वैसे भी समाज में सौतेली माँ की छवि कुछ अच्छी नहीं रही | इस तरह वह स्वयं से प्रश्न करती हुई अपने मन को निरंतर मथने लगती है |

अंततः यह कहा जा सकता है कि मुंशी प्रेमचंद के निर्मला उपन्यास में सभी पात्रों के बीच अंतरद्वंद को स्पष्ट किया है जिसमें स्त्री अस्तित्व, स्त्री- पुरुष का संबंध, यौन भावना, जटिल संवेदना, दर्द की आकुलता, मृत्यु-दर्शन, रिश्तों के प्रति अविश्वास, मध्यवर्गीय मानसिकता का चित्रण, नायिका का अंतरद्वंद, काम और अहं की भावना, स्त्री पात्र, पुरुष पात्र व बाल पात्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण आदि देखने को मिलता है | मुंशी प्रेमचंद का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रेमचंदोत्तर मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों से भिन्न है |

संदर्भ- ग्रंथ सूची :

  1. निर्मला – प्रेमचंद
  2. हिंदी उपन्यास का इतिहास – गोपाल राय
  3. उपन्यास : स्थिति और गति – चंद्रकांत बांदिवाडेकर
  4. हिंदी साहित्य में मनोविज्ञान – सीमा श्रीवास्तव
  5. आधुनिक हिंदी कथा- साहित्य और मनोविज्ञान – डॉ. देवराज उपाध्याय
  6. हिंदी उपन्यास : उद्भव और विकास – मधुरेश

शोधार्थी – सरस्वती कुमारी
हिंदी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय
मो. नं. – 9163485792

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