बाबा गोस्वामी तुलसीदास की जयंती के अवसर पर एक छोटा सा लेख उनको याद करते हुए।
आज जिसे हम भगवान राम कहते हैं, क्या हम उन्हें जानते हैं ? भारतीय समाज में राम का क्या महत्त्व है ? क्या हम राम को सच में जानते हैं ? तुलसीदास ने जिस राम को भगवान की पदवी दिलाई , वे कैसे अन्य कवियों के राम से अलग हैं। तुलसी के राम इतने महान क्यों हैं ? क्यों वे आज घर-घर पूजे जाते हैं ? आइए जानते हैं तुलसीदास के राम को और तुलसीदास की कविता को जिसका जादू आज भारतीय जनमानस के सर चढ़कर बोल रहा है।
तुलसीदास ने अपने राम का जन्म ही जग के मंगल के लिए करवाया है वे लिखते हैं कि –‘ वे सत्य प्रतिज्ञ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं। श्री रामजी का अवतार ही जगत के कल्याण के लिए हुआ है-
‘सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।।
दद्दा गुरुदेव डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि ‘मंगल और विवेक यह दो शब्द तुलसीदास के काव्य में सबसे अधिक आए हैं।’ मंगल शब्द रामचरितमानस की शुरुआत से लेकर उसके अंतिम छंद तक में आया है, जैसे तुलसीदास जगत के मंगल के लिए ही राम काव्य की रचना कर रहे थे, उन्होंने लिखा भी है- ‘ मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की’। राम का वनवास भी जगत के मंगल के लिए ही करवाया गया है। अब आइये राम के मंगल कर्मों पर दृष्टि डालें।
केवट प्रसंग :
वाल्मीकि रामायण में निषादराज केवट के द्वारा रामादि को गंगा पार करा देते हैं। केवट द्वारा नाव के स्त्री होने का भय और राम के पैर धोने का आग्रह तुलसी का अपना है। इतना ही नहीं, सीता का ‘मनि मुदरी’ उतार कर उतराई देने का प्रयास और केवट का इन्कार करना भी वाल्मीकि में नहीं है। यह प्रसंग श्रीरामचरितमानस के मार्मिक प्रसंगों में से एक है। जब राम अयोध्या से वनवास के लिए निकले; तब केवट ने ही उन्हें गंगा पार करवाया था-अपने नाव में बैठा कर। परन्तु नाव में बैठाने से पूर्व केवट ने राम के चरण अपने हाथों से पखारने की शर्त रखी। इस पर राम को संकोच हुआ और वे दुविधा में पड़ गये। इस पर केवट ने बड़े तार्किक एवं मार्मिक ढंग से राम से निहोरा किया। केवट ने कहा- ‘मेरे पास एक ही नाव है और इसी से अपने परिवार को पालता हूँ। आपके चरणों के चमत्कार को जानता हूँ । इन चरणों के स्पर्श से पाषाण भी सुन्दर नारी हो जाया करती हैं। अतः कृपया कर मुझे आपके चरणों को पखारने दीजिये। तभी नाव उस पार जायेगी –
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥’
राम भी सोच में पड़कर मुस्कुराने लगे -केवट के अटपटे बैन( बात) सुनकर । शाम हो रही थी ! गंगा पार करना ज़रूरी था। हार-पछताकर राम ने कहा -‘हे भाई तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाय! लेकिन उस पार जल्दी उतार दे काफ़ी देर हो रही है –
सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई॥
वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥’
तब केवट ने पानी लाकर राम के चरण पखारे और फिर राम-सीता एवं लक्ष्मण को नाव में बिठा कर गंगा पार कराया।
इस प्रसंग को तुलसीदास ने बड़ी मार्मिकता के साथ चित्रण किया है।
एक नाविक के लिए उस नाव का महत्त्व -जिससे वह अपने सम्पूर्ण परिवार का भरण पोषण करता है- इतना बड़ा है कि अपने राज्य के राजकुमार के साथ वह तर्क कर ; उनसे अपनी बात मनवा लेता है। नाव ही जैसे उसके जीवन का आधार है। अच्छा , जब राम गंगा पार कर उतर गये; तब केवट ने तुरंत दण्डवत किया। राम को संकोच हुआ ! ‘हाय इस बेचारे को अब तक उतराई नहीं दी।’ सीताजी ने रामजी के हृदय का भाव जानकर अपनी ‘मनि मूदरी’ उतार कर दी। राम ने केवट को अँगूठी देते हुए कहा -‘यह लो उतराई’।केवट काँप गया! राम के चरण पकड़ते हुए कहा- ‘हे नाथ मैं आज क्या नहीं पा गया! आज मेरे सारे दोष-दुःख एवं दरिद्रता की आग बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मज़दूरी की है; लेकिन आज विधाता ने मुझे बहुत अच्छी और भरपूर मज़दूरी ( मज़दूरी का ईनाम) दे दी-
उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥
दोहा- बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥’
वह भरपूर मज़दूरी क्या है? जिसका ज़िक्र केवट ने किया। ज़ाहिर है वह भरपूर मज़दूरी राम का केवट के साथ सान्निध्य है जिसने हज़ारों सालों की उस अस्पृश्यता को एक झटकें में उखाड़ कर फेंक दिया जिसने मनुष्यता के असीम बंधुत्व को जकड़ रखा था। तुलसी की रामकथा ऐसे ही ‘ मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की’ नहीं है। तुलसी बाबा ने अपने राम का ऐसा चरित्र प्रस्तुत किया है जिसे हम मनुष्यता का सर्वोत्तम आदर्श कह सकते हैं , आप तुलसी के राम को विष्णु का अवतार कहें न कहें ! परन्तु आपको उन्हें मनुष्यता का अवतार कहने में शायद ही संकोच हो ! क्योंकि एक आदर्श मनुष्य को कैसा होना चाहिए । तुलसी के राम इसके एक मात्र प्रमाण हैं। मध्यकाल के किस कवि ने अपने काव्य में अस्पृश्यता के बंधन को उखाड़ कर फेंका है ? अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियों को सबसे पहले तुलसी के राम ने खत्म कर दिया।
भारत के ग्रामीणों के साथ राम का सानिध्य ।
ऐसा कहा जाता है हमारे धर्म ग्रंथों में कि राजा को उसके प्रजा का विशेष ज्ञान होना चाहिए । मुझे लगता है राम का 14 वर्ष का वनवास इसलिए भी जरूरी था कि वह अपने परिवार के साथ वन जाकर 14 वर्ष तक भारत के गांवों में जाकर रह कर देखें कि किस प्रकार उनकी प्रजा जीवन यापन कर रही है ।
राम जब वनवास के दौरान भारत के गाँवों से गुजर रहे थे तो कोल-भीलों ने राम की काफ़ी सेवा की, तुलसी के राम ने कोल-भीलों को पुत्रवत प्रेम दिया। तुलसीदास कहते हैं कि ‘जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के धाम प्रभु श्री रामचन्द्रजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं, जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है। तुलसीदास साफ़ कह देते हैं कि रामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा है, जो जानने वाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले-
बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन॥१३६॥
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा॥’
अंत में प्रजा के दुखों को समझकर ही रामराज की स्थापना होती है। राम के राज में गरीबों का विशेष ध्यान रखा जाता है । बस इतना याद रखना चाहिए कि तुलसी के राजा राम ‘ग़रीबनेवाज‘ और ‘दीनबंधु’ हैं। क्योंकि जब राम राजा बने तो उन्होंने अपने राज्य में मणि- मानिक आदि महँगे किये हैं ( जिनके आनन्द के बिना हमारा काम चल सकता है) और तृण , जल तथा अन्न आदि वस्तुओं( जिनके बिना पशु- पक्षी और मनुष्यादि प्राणियों का काम नहीं चल सकता) को सस्ता कर दिया ।
मनि मानिक महँगे किए सहँगे तृण जल नाज ।
तुलसी एते जानिऐ राम गरीब नेवाज।।
( दोहावली का अंतिम दोहा)
नोट- ध्यान रहना चाहिए। यह अर्थव्यवस्था पर तुलसीदास द्वारा दिया गया पहला साम्यवादी सिद्धांत है।
तुलसीदास के राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहते हैं कि ‘मेरे साथ वन मत जाओ, पिता को मेरे वनवास का दुख है, भरत और रिपुसूदन भी अयोध्या में नहीं हैं, तुम भी साथ चलोगे ,तो अवध सब प्रकार से अनाथ हो जायेगा, प्रजा को बहुत कष्ट होगा और राज-काज ठप पड़ जायेगा, और –
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥
लोकतंत्र में भी ऐसे वाक्य नहीं मिलेंगे ।
इसे आज के संदर्भ से भी जोड़ सकते हैं कि आज के नेता प्रजा के दुःख का कितना ध्यान रखते हैं ! आज के कवियों में है इतना बड़ा कलेजा कि सत्ता प्रतिष्ठान पर इस तरह का एक शब्द भी लिख सकें। (दरबारी चाटुकारिता से फुर्सत मिले तब न । )
अब तुलसी के श्रीराम का पुरुषार्थ देखें –
‘परहित बस जिन्ह के मन माहीँ। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ॥
तुलसी के राम जटायु से यह कहते हैं कि जिस भी व्यक्ति के मन में दूसरे का हित रहता है उसके लिए जगत में कोई काम दुर्लभ नहीं है। एक पक्षी को तुलसी के राम ने तात ( राम अपने पिता को तात कहा करते थे) कहा। ऐसी विनयता, ऐसी शीलता, किसी भी नायक में है क्या !
क्या रामचरितमानस के अलावा किसी अन्य काव्य ग्रंथ या धर्म ग्रन्थ से भारत के जनमानस में ऐसी शालीनता का संचार हुआ है ?
जटायु से राम कहते हैं कि ‘आप ऊपर जाके मेरे पिता से सीता हरण का समाचार मत कहिएगा। क्योंकि अगर मैं राम हूं, तो रावण अपने कुल सहित उनके पास जाकर सारी कथा कहेगा।
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ॥
जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥३१॥’
क्या ऐसा पुरुषार्थ किसी नायक में दिखाई देता है ऐसी कर्म प्रधानता। कर्म को लेकर इतना उत्साह और साहस हमने किस नायक में देखा है ? क्या भारतीय समाज को इससे अधिक प्रेरणा देने वाला नायक आज तक मिल सका है ?
मध्यकालीन सामंती समाज में तुलसी के राम का पत्नी प्रेम देखिए।
स्त्री पुरूष के सामर्थ्य पर और उसकी वीरता पर हमेशा से रीझ जाया करती है। यह आजमाई हुई बात है। बाबा ने खर -दूषण के साथ राम का ऐसा भयानक युद्ध दृश्य रखा है कि अच्छे अच्छे वीरों की रूह कांप जाय।फिर सीताजी तो राम जी के अनुसार स्वभाव से ही ‘भीरु’ है- ‘मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ’ । और जब उनके पति ने उनके सामने ही खर -दूषण और उनकी विशाल सेना का संहार अकेले ही कर दिया हो, तो भला कौन सी ऐसी स्त्री होगी, जो अपने पति के पौरुष पर मोहित न हो जाय। इंद्र के मूर्ख बेटे जयंत ने कौआ बन कर सीता जी के चरणों में हल्की चोंच मारी , राम ने खून बहता देख सीक को ब्रम्हास्त्र बना कर उस बायस को तीनों लोकों का चक्कर कटवा दिया और अंत में दया कर उसे एक आँख का बना कर छोड़ दिया –
‘सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा॥
सीता चरन चौंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना॥’
ऐसा एक निष्ठ पत्नी प्रेम सम्पूर्ण भारतीय वाङ्गमय में दुर्लभ है। बाबा को मानस में जब-जब मौका मिला इन दोनों के पति-पत्नी प्रेम पर फुर्सत से लिखा है। मध्यकालीन समाज में जहाँ स्त्री सिर्फ भोग की वस्तु थी । वहां बाबा ने एक क्षत्रिय रघुवंशी – जिसके स्वयं के बाप ने तीन-तीन विवाह किया था- के निज हाथों से फूलों का आभूषण बना कर सीताजी को सम्मान के साथ स्वयं पहनाया –
‘एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए।।
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥’
मानों बाबा इस प्रसंग से उस सामंती समाज के छाती पर मूंग दल रहें हो, और कह रहें हो ‘कूटो छाती सामन्तों आदरणीय महंत जी के शब्दों में ‘तुम्हारी ऐसी की तैसी’ । श्रीरामचरितमानस का यह प्रेम प्रसंग मुझे बेहद पसंद है-
‘ सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥’
सीताजी श्री रामजी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं हैं।
श्रीरामचरितमानस, तृतीय सोपान- ( अरण्य काण्ड)
कितनी करुणा, कितना प्रेम, कितनी उदारता, कितना सामर्थ्य है तुलसीदास के राम में। कितना हृदयविदारक दृश्य है जब सीता- हरण के बाद राम पत्नी के लिए विलाप करते हैं। कितना अद्भुत दृश्य है उनका सीता के पांव से चुन- चुन कर लंबे समय तक कांटे निकालना-क्योंकि
‘जलको गये लक्खन हैं लरिका
परिखौ पिय छाँह घरीक ह्वै ठाढे
पोछि पसेऊ बयारि करौं
अरु पाँय पखारिहौं भूभुरि डाढे
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानिकै
बैठि बिलम्ब लौ कंटक काढे
जानकी नाह को नेह लख्यो
पुल्क्यो तन बारि बिलोचन बाढे।। ‘
है कोई सामंती समाज में राम जैसा! क्या कोई आज भी है ‘तुलसी के राम’ जैसा ! कितना विराट विज़न था तुलसीदास का। तुलसीदास के राम के सबसे अधिक निकट कौन हैं- निषाद, हनुमान, कोल-भील, ही न! कोई राजपरिवार का तो नहीं न ! आज कौन सा बेटा है जो पिता के वचन के लिए 14 वर्ष वन जाने के लिए सहर्ष तैयार हो जायेगा!
तुलसीदास ने रामचरितमानस में वाल्मीकि से अपने राम का निवास बताते हुए कहा कि ‘हे राम जिनके हृदय न तो काम, क्रोध मद, अभिमान और मोह है; न लोभ है, न क्षॊभ है; और न कपट , दम्भ और न माया ही है । आप उनके हृदय में निवास करें। जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं ; जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निन्दा) सब एक समान लगता है, जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते – सोते आपके ही शरण में हैं । जिनका आपको छोड़ कर कोई दूसरा आश्रय नहीं है , आप उनके मन में बसिये । जो परायी स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और जिन्हें पराया धन विष से भी भारी विष लगता हो। जो दूसरे की सम्पत्ति देख कर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं ,उनके हृदय आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं । जिन्हें आपसे कभी कुछ भी नहीं चाहिये, जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है , आप उसके मन में निरन्तर निवास कीजिये; वह आपका अपना घर है-
‘काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥’
ऐसे नायक हैं किसी और ग्रंथ में ?
तुलसीदास ने राम को सर्वत्र ईश्वर के रुप में प्रस्तुत किया है ,लेकिन उन्होंने कहीं भी राम के मुख से देवताओं की प्रशंसा नहीं करवायी, बल्कि मनुष्य योनी या इस मानव तन की महत्वत्ता को राम के मुख से इतने सुंदर तरीके से कहवा दिया है कि क्या कहें!
राम कहते हैं कि ‘बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)।
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
तुलसी ने अपने समय के भारत वर्ष के सबसे बड़े झगड़े को ख़त्म कर दिया है। यानी शैव-वैष्णव धर्म का मिलन करा कर तुलसीदास ने संपूर्ण भारत को एक कर दिया। भारतवर्ष के दो सबसे बड़े देवताओं शिव और राम में ऐसी अखंडता कि कोई शिव को चाहने वाला राम से द्रोह नहीं कर पाता। रामचरितमानस के षष्ठ सोपान का यह प्रसंग देखें।
‘सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं।।
देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना।।
परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी।।
करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना।। सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए।।
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।
दो० -संकर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास। ते नर करहि कलप भरि, धोर नरक महुँ बास।।
रामनरेश त्रिपाठी ने एक बहुत बड़ी बात कही है उन्होंने कहा कि भारत वर्ष के लोगों को जितना तुलसीदास ने शिक्षित किया है उतना अब तक विश्वविद्यालय कॉलेजों और स्कूलों ने भी नहीं किया है।
क्रमशः……
जय जय 🙏🏻🙏🏻🌹