महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘थक कर बैठ गये क्या भाई मंज़िल दूर नहीं है’ (Ramdhari Singh Dinkar)

महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता 'थक कर बैठ गये क्या भाई मंज़िल दूर नहीं है' (Ramdhari Singh Dinkar) साहित्य जन मंथन

Ramdhari Singh Dinkar:

यह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है

थक कर बैठ गये क्या भाई मंज़िल दूर नहीं है

चिंगारी बन गयी लहू की बूंद गिरी जो पग से
चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिन्ह जगमग से
शुरू हुई आराध्य भूमि यह क्लांत नहीं रे राही;
और नहीं तो पांव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थक कर बैठ गये क्या भाई मंज़िल दूर नहीं है

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेप है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जा्च, देवता इतना क्रूर नहीं है
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

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