रत्नकुमार सांभारिया की कहनी ‘शर्त’ में दलित और संभ्रांत वर्ग

रत्नकुमार सांभारिया की कहनी ‘शर्त’ में दलित और संभ्रांत वर्ग साहित्य जन मंथन

दलित साहित्य के महान सामाजिक क्रांतिकारी एवं वैज्ञानिक विचार के आलोक स्तंभ बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर के शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो के मूलमंत्र की आधारशीला पर रचा गया साहित्य, दलित साहित्य है ।
भारतीय समाज में ‘जाति’ नामक दीमक लग गई है । जो मनुष्य को मनुष्य मानने से इंकार करता है । दलित समूदाय सदियों से अपमानित और उपेक्षित है । वह प्रतिपल यथार्थ रूपी आत्मा से पीड़ित है । समाज दलित वर्ग को कभी भी समाज का एक हिस्सा न माना और न ही दलितों के प्रति समता का व्यवहार किया है । मैं मानता हूँ दलित समूदाय एक महान समूदाय हैं, जिन्होंने अपने कार्य के प्रति समर्पित हैं । स्टेशन पर झाड़ू मारती महिला को देखे या नाली साफ करता हुआ पुरूष, लेकिन कोई इस काम के लिए उन पर उंगली उठाए तो यह असहनीय वेदना है । दलित समाज अगर इस कार्य से संन्यास ले ले तो सभ्य समाज कल्पना मात्र है । जाति, धर्म और वर्ण से क्या लेना देना है । यह बस परंपरागत रूढ़ सोच है । मनुष्य की पहचान उसके गुण से किया जाना चाहिए न कि जाति से ।
महान संत कबीर पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन यथार्थ से परिचित थे । वे हमेशा समता मूलक वाणी का प्रचार-प्रसार किया । कभी किसी को नीचा समझना नहीं चाहिए और किसी को दोष लगाने से पहले खूद को परखना चाहिए ।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।
(कबीर)

हम शिक्षित है, सभ्य है, पर आज भी अंधविश्वास का चादर ओढ़े हुए हैं । मनुवादी विचारों से ग्रस्त हैं । मनुष्यता को हम भूल चुके हैं । दूसरों को नीचा दिखाना, उपहास करना, हुक्कुम चलाना इसको हम प्रतिष्ठा समझ बैठते हैं ।

सभ्य समाज कहलाने वाले वर्ग अपने मान-प्रतिष्ठा को हमेशा दलितों के सहारे स्वच्छ और निर्मल रखते हैं । इनको स्वच्छ और निर्मल करते करते दलित को मलिन मान लिया गया है । दलित हमेशा घृणा व दया का पात्र बना रहता है । अर्थात् आज भी दलित वर्ग गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं, बस स्वरूप बदल गया है । दलितों को कब आजादी मिलेगी ? कब उनको जाति नामक दीमक से मुक्त किया जाएगा ? कब तक दलित महिलाओं के साथ अत्याचार किया जाएगा ? कब तक वे अपनी इज्जत का तमाशा देखेंगे ? कब उन्हें मान-सम्मान, इज्जत दिया जाएगा ?

शर्त’ कहानी में दलित कहानीकार रत्नकुमार सांभारिया जी संभ्रांत वर्ग के प्रति पानिया (पानाराम) के माध्यम से दलितों का आक्रोश के स्वर को मुखरित किया है । यह कहानी दलित समाज के हर पीड़ित परिवार का जयघोष है । इस कहानी के यथार्थ को बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि से सांभारिया जी प्रस्तुत किया है ।
इस कहानी में जसवीर सिंह संभ्रांत वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । पूर्वोज से उसके पास सब कुछ है । न्याय की प्रतिमूर्ति गाँव का सरपंच भी जसवीर है । वह आदमी को आदमी नहीं समझता । दबदबा कुछ ऐसा है कि कोई मुँह उठाकर बात करने का भी साहस नहीं करता । घर के गेट के सामने बैठे रहना और आते-जाते लोग से सलाम करवाना, काम सौंपना और गाली-गुलज करना यह है जसवीर सिंह का नित्य कार्य है ।
दलित और गरिबों की इज्जत, इज्जत नहीं होती है । उनकी इज्जत पर कोई तमाशा भी बना दे, सभी लोग मौन धारण कर लेते हैं । जो आवाज़ उठाना चाहता है, उसे दबा दिया जाता है । क्योंकि दलित इंसान नहीं है, उन्हें दर्द नहीं होता ? वह तो छोटी जाति का है उनके लिए इज्जत क्या है…? । ‘शर्त’ कहानी में इज्जत और उसकी प्रतिक्रिया में क्रांति मुख्य विषय है ।

पानिया की बेटी की इज्जत लूट ली जाती है । वह न जमींदार है न अफसर है । उसका सुनेगा कौन ? जहाँ एक-दो-तीन पेट पालने के लिए दलित औरतें काम करने जाती है वहीं कभी-न-कभी किसी का हवस का शीकार बन ही जाती है । इस कहानी में पानिया की बेटी जसवीर सिंह के यहाँ काम करती थी । घर में कोई न था । इसका फाईदा उठाकर सरपंच के बेटे ने पानिया की बेटी के साथ…। सरपंच न्याय की मूर्ति, न्याय नहीं कर पाता । उल्टा मामले को दबाने की कोशिश करता है। दयाभाव से पानिया से कहता है-“क्या बताऊँ ? वह दिन ही मनहूस था, पानिया । रिश्तेदारी की शादी में हम सबका जाना हुआ और मेरे लड़के का तेरी लड़की के साथ…। अगर उसकी परीक्षा नहीं होती और तेरी लड़की उस दिन झाड़ू बुहारी को नहीं आती, तो आज का दिन नहीं दिखता ।”
इस उद्धरण से हमें यह पता चलता है कि सरपंच अपने बेटे की गलतियों पर पर्दा डाल रहा है । साथ ही साथ भाग्य को दोषी ठहरा रहा है । मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है खूद की गलती को नजरअंदाज करो और अपनी गलतियों का कोई दूसरा कारण ढूँढ़ लो । संभ्रांत वर्ग हमेशा लोगों को खरीदने की कोशिश करते हैं क्योंकि जब जरूरत पड़े उनकी कंधे से हथियार चला सकें और दूसरों की इज्जत तो उनके लिए एक तमाशा मात्र है ।
जसवीर का नौकर बिरजू कहता है-“बालक था, कर बैठा गलती ।” यह एक परंपरागत रूढ़ वाक्य है । कोई कुछ भी गलती कर ले और इस वाक्य का साहरा परिजन तो लेते ही लेते हैं । कभी कभी इस अस्त्र का प्रयोग करके अपराधी बच भी जाता है । जो किसी की आबरू को तमाशा बना सकता है, वह बालक कैसे हुआ ?
जसवीर सिंह (संभ्रांत) को अपने मान-सम्मान, इज्जत की बड़ी चिंता थी, वह कहता है- “पानिया, मैं कम दुःखी नहीं हूँ, उस हादसे के बाद । अगर मेरी ज़मीन जायदाद का दूसरा वारिस होता, उस दृष्ट को गोली मार देता, मैं । एक मुहँ सौ बातें । गाँव से निकलना नहीं बनता ।” सरपंच पानिया की भावनाओं को भी समझना नहीं चाहता । क्या दलितों की इज्जत नहीं होती ? अगर ऐसा क्रुर काम कोई दलित कर लेता तो आप भी सोच नहीं सकते कि उसके साथ क्या क्या बदसलूकी होती ।
पानिया के सामने सरपंच अपनी इज्जत को बचाने की पूरी कोशिश करता है । लेकिन पानिया सरपंच के मलिन मुखटा को पहचान लेता है । वह कहता है-“अपने तो उसे पाँच उँगली भी नहीं भिड़ाई । गोली मार देते । वाह! बहुत खूब । छींटने और छांटने में बहुत अंतर होता है, मुखिया साब ।” सरपंच जी-जान लगाकर पानिया से समझोता करने की कोशिश करते हैं । पानिया के अंदर धद्क रही आग को शांत करना चाहा पर पानिया उसमें और घी डाल रहा था और जल रहा था । पानिका का आक्रोश अंकुरित हो गया था, अब उसे रोकनेवाला कोई न था । यहाँ सांभारिया जी लिखते हैं- “जसवीर ने जी भरकर उसकी चिरौटी की, चबुक छूकर उसके क्रोध, आक्रोश और अंतर्वेदना को पिघलाने की खूब चेष्टा की, लेकिन पानाराम था कि टस से मस नहीं हुआ।”
‘शर्त’ कहानी में लेखक जिस वास्तविकता को उजागर किया है, काश सभ्य समाज वर्ग के लोग समझ पाते । जसवीर सिंह कहता है- “पानिया, तुम छोटी जात वालों के बलबूते पर ही मेरी सरपंची बरकरार रही, सालों साल । तुम ही मेरे हाथ हो । अगर तुम मुझसे कट जाओगे, तो मेरा क्या वजूद । पंखहीन पंछी को देखा है ? बस… ।” इस सच्चाई को कोई स्वीकार नहीं करता ।
सरपंच पानिया की बेटी की शादी करवाने के लिए भी राजी हो गया । पर उसे पता न था कि जिस दिन इज्जत लूट गई, दूसरे दिन ही शादी टूट गया । निष्ठुर सरपंच यह भी कहता है कि-“पैसा ले जाओ, दूसरी जगह दूर कहीं कर दो।” यह था सरपंच का असली मुखटा । जो किसी की भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं करता, बाहर कुछ अंदर कुछ । पैसों के बल पर सभी को खरीदना चाहता हैं । इसका विरोध करते हुए पानिया कहता है- “पैसा और गरीब की इज्जत को एक ही तराजू में मत तोलो, साब।”
हमारे देश में भी बड़ी विडंबना है । दलितों का गुहार सुनने वाला कोई नहीं है । जिसके पास पैसा है, वह आधुनिकतंत्र का संचालक है । दलित के लिए न सरकार, न थाना और न कचहरी । हर जगह इनके लिए ताला लगा दिया गया है और चाबी संचालक के पास । आए दिन दलितों के साथ अत्याचार किया जा रहा है, लेकिन उसका खुलासा कोई नहीं करता क्योंकि वह दलित है । इनके पास सच के अलवा और कुछ नहीं है । कितने ही मासूम दलित लड़कियों के साथ बलात्कार करके मार दिया जाता है और दोषी ‘निर्दोश’ । कोई मुकद्दमा नहीं, कोई जाँच नहीं । बस कभी-कभी एक दिन के लिए अख़बार में जगह बन जाती है । कुछ परिवार को पैसा देकर मुँह बंद करवाने की कोशिश की जाती है तो कुछ को मारने की धमकी भी दी जाती है । सच्चाई का गला घोट दिया जाता है । पानिया का वेवश स्वर देखिए-“थाना-कचहरी गरीब के नासूर होते हैं ।”
‘शर्त’ कहानी का पात्र पानिया जब कहता है कि वह अपने परिवार के साथ ज़हर खाकर मर जाएगा । यह सुनते ही सरपंच अपनी इज्जत को किन शब्दों में कहता है, देखिए-“पानिया, यूँ तो बलात्कार के साथ एक हरिजन परिवार की हत्या का दाग भी लग जाएगा मेरी सफेद चादर पर।”
‘सफेद चादर’ मैं समझता हूँ-स्वच्छ, निर्मल, शुद्ध और न्याय का प्रतीक है सफेद चादर । बेटा बलात्कारी और पिता जुर्म को दबाने की कोशिश में लगा है और इनकी इज्जत है सफेद चादर… ।
बहुत कोशिश करने पर भी जब बात नहीं बनी । सरपंच ने कहा- ‘तुम जो शर्त रखना चाहते हो रखो, मैं पूरा करूँगा’ । शर्त बताने के लिए पानिया राजी हो गया । सरपंच यह सोच रहा था कि ज्यादा से ज्यादा ज़मीन, पैसा, गाँय, बकरी ही माँगेगा । पर उसे पता न था कि यह ‘शर्त’ बहुत ही विकराल रूप धारण करेगा ।
वह शर्त रखना चाहता है-“औरत की सजा औरत ।” पर ये उसे मानवीय नहीं लगता । जब वह शर्त रखने को कोशिश करता है तब उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसकी बेटी की रूह खड़ी हुई, कहती है-“बात कह दो और शहिद हो जाओ, बापू।” इस वाक्य से यह प्रतीत होता है कि पानिया की बेटी शरीर छोड़ चुकी थी ।
सांभरिया जी शर्त कहानी में एक टूटे हुए परिवार की मनोदशा को पानिया के माध्यम से यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं । पानिया कहता है-“केवल साँस लेकर जिंदा रहना जिंदगी नहीं है । आदमी की असली जिंदगी तो उसकी आबरू होती है । आबरू उतरी, इंसान जिंदा लाश हुआ।” एक तरह से पानिया जिंदा लाश बन चुका था । वह देखना चाहता था कि जो हमारे साथ हुआ अगर सरपंच के साथ होता तो क्या निर्णय करते । पानिया शर्त रखता है- “मुखिया साब, इज्जत का सवाल है यह । आपकी इज्जत सो मेरी इज्जत । आपकी लड़की मेरे लड़के के साथ रात रहेगी।” इस वाक्य से हमें पानिया का प्रतिशोध नहीं, परख की भावना से तोलना होगा । यहाँ दलितों का आक्रोश को जयघोष करता है ।
‘शर्त’ कहानी में पानिया का शर्त सुनकर जसवीर सिंह ज्वालामुखी बन गया । उसे ऐसा लगा जैसे आसमान फट गया हो । फिर क्या था चार कदम दूर दीवार पर टँगी बंदूक उतारी और पानिया के सीने में उतार दी । सरपंच को भी दौरा पड़ा और दोनों शहिद हो गए ।
जसवीर सिंह शर्त सुनते ही आक्रोश के चरमसीमा तक पहुँच जाता है तो जिसके परिवार के साथ यह हादसा हुआ हो उसके आक्रोश को किस परधी में रख सकते हैं ।
इस कहानी में सांभारिया जी पानिया को दलित समाज की क्रांतिकारी नायक के रूप में प्रस्तुत किया हैं । कहानी में इस बात की पुष्टी होती है कि हर मनुष्य मनुष्य होता है । सभी के पास अपना मान-सम्मान और इज्जत होती है । इस बात को मनुष्य भूल न जाए । वह किसी की इज्जत को तमाशा बनाता है तो एक दिन वह भी तमाशा बन सकता है । दलितों को भी सांभारिया जी इस और संकेत कर रहे हैं कि अब किसी प्रकार से गुलामी का जिदंगी नहीं जीना है । अब स्वर क्रांति का हो ।

आधारग्रंथ

दलित समाज की कहानियाँ- सांभारिया, रत्नकुमार

सत्य नारायण घिबेला (एवं एम.फिल)
हैदराबाद विश्वविद्याल

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