‘समकालीन साहित्य परिदृश्य’ पुस्तक की समीक्षा

'समकालीन साहित्य परिदृश्य' पुस्तक की समीक्षा साहित्य जन मंथन

समकालीन साहित्य परिदृश्य डा. मुमताज और संतोष नागरे द्वारा संपादित 40 शोधालेखों का एक ऐसा बहुरंगी समुच्चय है जहाँ एक ही मंच पर अपने सम्पूर्ण रचना समय को समेटने का तत्पर अनुरोध लक्षित होता है । यह आलोचना – ग्रंथ एक साहित्यिक माल या मल्टीकाम्प्लेक्स है जो माल संस्कृति के विरुद्ध युद्ध रत है । डा. नगेन्द्र ने ‘ हिन्दी साहित्य का इतिहास ‘ संपादित किया था जिसमें अनेक विद्वानों के लेख शामिल हैं । प्रस्तुत पुस्तक भी एक ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसमें समवेत सभ्यता विमर्श की अनुगूँज साफ सुनाई देती है । इस कृति का मौलिक स्वर वंचितों और उत्पीड़ितों की पक्षधरता और दलितों की दुरवस्था की जिम्मेदार व्यवस्था को अनावृत कर उसके नियामकों को चोट पहुँचाना है । एक सार्थक युयुत्सा हत्यारे तक पहुँचने के लिए जंगली चिड़ियों का व्याकरण सीख रही है । खासकर अपने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई निरंतर हार रहे आदिवासियों की आवाज बनने की प्रक्रिया में आदिवासियों की तरह ही भाषा की सहजता – सरलता को आजमाने की एक विनम्र कोशिश इस कृति के लेखकों में संलक्ष्य है । आदिवासी विमर्श इस समीक्षा आयोजन की धुरी है । विशेष रूप से विनोद कुमार जी का लेख अत्यंत ग्यानवर्धक है और दलितों से आदिवासियों के सांस्कृतिक अन्तराल को रेखांकित करता है । संचय की प्रवृत्ति से रहित श्रम की सामूहिकता एक आदिम राग रचती है और एक नए सामगान की अवतारणा करती है । हमारे यहाँ होली में सभी गायक होते हैं । वहाँ उपभोक्ता फोरम अनुपस्थित होता है । यह शायद उसी आदिवासी उल्लास पर्व का अवशेष या स्मृति – जीवाश्म है । रामायण की कथाभूमि तो साकेत या अयोध्या है किन्तु आत्म प्रसार के लिए कथा निकलती है दण्डकारण्य में । राम ने वहाँ आर्य और अनार्य संस्कृतियों के बीच एक सेतुबंध रचा । हनुमान इस द्वंद्व समास के संयोजक सूत्र हैं ।लेकिन यह निबन्ध चालीसा भिन्न भावभूमि पर प्रतिष्ठित है । महाभारत में भी हस्तिनापुर कथा काण्ड की धुरी है लेकिन पाण्डवों के खाण्डवप्रस्थ और वन पर्व में ही कथा का विस्तार होता है लेकिन आध्यात्मिक कुहाजाल से मुक्त इस आलोचना – ग्रंथ में चीजों को सीधे उनके नाम से पुकारने का उद्यम अपराध और षडयंत्र को उसके अंजाम तक पहुँचाने के लिए प्रतिबद्ध है । ऐतिहासिक दृष्टि मनुष्य को उसके द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक परिवेश में स्वीकार करती है और क्रान्तिधर्मी मूल्यों का वरण करती है । काल की मार से अभिशप्त सर्जना सांस्कृतिक परिवेष्टनों को अतिक्रांत कर भाषिक आभिजात्य अथवा टकसालीपन को छोड़कर एक नई काव्य – मुद्रा अर्जित करती है । उसके आन्तरिक विनियोजन में यथार्थ के सार्वजनीन संदर्भों की आत्मगत पीड़ा और भारत की तलीय जनता के कष्ट – चित्र हैं । गाँव से नगर, संसद से सड़क तक फैले यथार्थ के विभिन्न स्तरों को उद्घाटित करती और निहित स्वार्थों को सिद्ध करने में संलग्न क्रूर अमानुषिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का शंखनाद करती आज की कविता और नवलेखन में सपाटबयानी का आग्रह कविता के परंपरित शील को विखंडित करता है । कई बार युग के जटिल यथार्थ और संश्लिष्ट सौन्दर्य बोध को समग्रतर अभिप्राय देने के बजाय ऐकान्तिक निषेध स्त्री – सशक्तीकरण और दलित ऐक्ट के दुरुपयोग की अवहेलना भी करता है । दलित विमर्श के सूत्रधार और स्त्री विमर्श के संयोजक राजेन्द्र यादव खुद अपनी पत्नी मन्नू भंडारी को न्याय नहीं दे सके ।तथा जब आदिवासियों को विकास की मुख्यधारा में लाएँगे तो उनकी संस्कृति मौलिक रूप से सुरक्षित कैसे रह सकती है ? जो निर्मला पुतल की एक आनुषंगिक चिन्ता है ।लेकिन कवि कर्म को दायित्वपूर्ण सामाजिक चेतना से संवलित कर आदमी को जानवर की जिन्दगी और कुत्तों की मौत मरने के लिए बाध्यकारी व्यवस्था की जिम्मेदारी तय की जाय । आक्रोश, आवेग और विक्षोभ की तांबई मुद्रा काव्य – भाषा को भी आँच देती है । निर्मला के नगाड़े की तरह बजते हुए शब्द सत्ता के विरुद्ध संघर्ष का दुंदुभिनाद हैं । वह जानती हैं कि यहाँ डाक्टर रोग को दबाने की दवा देता है , रोग के समूल नाश की नहीं । इस पूँजीवादी व्यवस्था में गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है । भोक्तृत्व की संवेदना और अनुभूति की प्रामाणिकता ने अवसाद ग्रस्त मनःस्थिति की विचलित करने वाली रचनाएँ दी । अमानवीयकरण के विरुद्ध चीख धूमिल की इस कविता में दूरसंवेदी ध्वनियों के साथ सुनाई पड़ती है ——–
मुझे लगा — आवाज किसी जलते कुएँ से आ रही है ।
एक अजीब सी प्यार भरी गुर्राहट ,
जैसे कोई मादा भेड़िया अपने छौने को दूध पिला रही है
और साथ ही किसी मेमने का सिर चबा रही है ।
अंतर्ध्वनन की तीव्रता यातना – दंशों के तीक्ष्ण अनुभव को परावर्तित कर देती है । बहुमत के नाम पर प्रतिष्ठित लोकतंत्र वस्तुतः अल्पमत का ही ऐश्वर्य – प्रसार है । इसलिए पूँजी, राजनीति और टेक्नोलाजी के पायों पर टिके एक विराट शोषण यंत्र से टकराव अपरिहार्य है जो कि प्रकारान्तर से एक दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है । इस नए कल्प लोक के नागरिकों ने कविता और कथा कृतियों की झील में समय के चेहरों को पहचानने और प्रक्षालित करने का प्रयास किया है । दलित दयिता की अंतर्वेदना से लेकर किन्नर समाज की पीड़ा तक इस समीक्षा ग्रंथ के उपजीव्य बने हैं । मनुष्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने की मांग करती यह रचनाशीलता वरेण्य है । मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन से लेकर अफ्रो – अमेरिकन मानुषी की व्यथा – कथा को संबोधित सर्जनशीलता एक वैश्विक विमर्श रचती है । मीडिया के मायाजाल में फँसती जा रही नयी पीढ़ी शक्ति – संरचना के तिलिस्म को कैसे तोड़ेगी ? विग्यापन की दुकान बन गया मीडिया मूल्य निर्माता प्रतिष्ठान है या छवि निर्माता प्रतिष्ठान जो यथार्थ की प्रसंस्करणात्मक या सत्ता सम्मत छवियों के उत्पादन में निरत है ।और सत्ता का हवाई निरोध करके सत्ता प्रतिष्ठानों से गँठजोड़ करने वाले लेखकों के अंतर्विरोध को उजागर करने और मानवीय संबन्धों और तज्जन्य तनावों के अंकन का गुरुतर दायित्व निभाने वाली सिसृक्षा और विवक्षा वरेण्य है । यहाँ छोटी छोटी नदियों ने मिलकर एक महानदी का निर्माण किया है । इन नवलेखकों का शोध गहरा अनुसंधान बने और नई जीवन दृष्टि का आविष्कार हो, इस कामना से संस्फूर्त स्वस्ति – पाठ है यह आलेख ।

अजीत कुमार राय की फेसबुक वॉल से

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