हमारा समय हमारी कविता
हमारा समय हमारी कविता श्रृंखला में आज हमारे कवि साथी हैं विनय सौरभ।आज शाम 5 बजे वे अपनी कविताओं का पाठ और बातचीत करेंगे।इस अवसर पर उनकी कविताओं पर केंद्रित एक आत्मीय आलेख लिखा है युवा कवि और दिल्ली विश्विद्यालय में शोधार्थी दिनेश कबीर ने।आइये पढ़ते हैं उनका यह आलेख
स्मृतियों को सहजने वाले कवि- विनय सौरभ
“दिल्ली में कवि कैसे होते हैं!
कौन से एकांत में लिखते हैं कविताएँ!
कैसे हो जाते हैं दिल्ली के कवि जल्दी चर्चित!”
-विनय सौरभ
चर्चित होने की प्रचलित संस्कृति से दूर रहने वाले कवि विनय सौरभ समकालीन हिन्दी कविता में कोई नया नाम नहीं हैं। विनय सौरभ की कविताएं बीसवीं सदी के अंतिम दशक से लगातार हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, पहल, समकालीन भारतीय साहित्य आदि में प्रकाशित होती रही हैं। विनय सौरभ को सूत्र सम्मान, कवि कन्हैया स्मृति पुरस्कार के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा परिषद, राजभाषा विभाग बिहार, कादम्बिनी पत्रिका द्वारा कविता लेखन के लिए पुरस्कृत किया जा चुका है। इनका जन्म 22 जुलाई 1972 को संथाल परगना के एक गाँव ‘नोनीहाट’ में हुआ है। वर्तमान में वे दुमका में कार्यरत हैं। इन्होंने टी. एन. बी. कॉलेज, भागलपुर से बीए और भारतीय जन संचार संस्थान, नयी दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई की है ।
विनय सौरभ की कविताओं का मुख्य उत्स उनकी स्मृतियाँ हैं, उनकी कविताओं में स्मृतियाँ प्रायः आती हैं। स्मृतियाँ उन्हें उर्जस्वित करती हैं,उन्हें सृजन के लिए प्रेरित करती हैं।वे उनका प्राप्य हैं और दाय भी। स्मृतियों का सब्सिट्यूट कुछ नहीं हो सकता है जबकि आज सबसे बड़ा हमला हमारी स्मृतियों पर किया जा रहा है।यह उनकी कविताओं को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता है।आज हमारे परिदृश्य और जीवन-जगत को इतना गतिशील बना दिया गया है कि हमारे जीवन से स्मृतियों का लोप होता जा रहा है। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल एक कविता में लिखते हैं
“याद रखने पर हमला है और भूल जाने की छूट है’ x x x ‘बाजार कहता है याद मत करो / अपनी पिछली चीजों को पिछले घर को / पीछे मुड़ कर देखना भूल जाओ / जगह-जगह खोले जा रहे हैं नए दफ्तर / याद रखने पर हमले की योजना बनाने के लिए”।
मंगलेश डबराल की आशंका ‘हमले की योजना’ अब मूर्त रूप लेने लगी है। बाजारवाद प्रायोजित हर रोज होने वाले नये-नये इवेंट्स हमारी स्मृतियों पर हमला हैं।आज की भागम-भाग वाली व्यस्तता में जीवन से ठहराव के क्षण क्षीण होते जा रहे हैं जिससे सोचने-समझने, सहजने की अन्विति बन नहीं पाती है। ऐसे में स्मृतियाँ एक ‘सेल्फी’ में महदूद होने लगी हैं। स्मृतियों को कलात्मक रूप देकर सहेजने का अवकाश समाप्त होते जाते समय में विनय सौरभ की कविताएँ एक ऐसी पूँजी की तरह हैं जिसे कई बार खर्च किया जा सकता है। विनय सौरभ ने अपने पुरखों की,अपने पिता की, अपने दोस्तों की स्मृतियों को कविता में दर्ज किया है। कविता स्थूल अर्थों में दस्तावेज़ भले न हो लेकिन स्मृतियों का दस्तावेजीकरण कवि अपनी कविताओं में करते रहे हैं। विनय सौरभ इस मामले में अधिक प्रखर दिखते हैं। ‘स्थायी पते’, ‘गंध’, ‘एक रोज याद’, ‘वे दिन’, ‘उसी लोकधुन की स्मृति में’, ‘मैं लौटूँगा’, ‘अच्छे दोस्त’, ‘जिल्दसाज’, ‘बख्तियारपुर’ ‘दोस्त का आना’, आदि शीर्षक कविताएँ कवि की स्मृतियों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति हैं।
“पिता की कमीज़/ खूंटी पर टंगी है बरसों से / पसीने से भीगी/ और पहाड़ों की तरफ से/ हवा लगातार कमरे में आ रही है/ पिता बरसों से इस मकान में नहीं हैं/ हम इस कमीज़ को देखकर ऊर्जा और / विश्वास से भर उठते हैं।”
विनय सौरभ सहज अनुभूतियों के कवि हैं। वे अपनी कविता से अपने पाठक को न चमत्कृत और न ही चकित करने का सफल-असफल प्रयास करते हैं। उनके काव्य विषय सहज और स्वाभाविक लगते हैं। उनकी कविताओं में माता-पिता, भाई-बहन, दोस्त, घर, गाँव बार-बार आते हैं। यद्यपि विनय के संवेदना का दायरा परिवार, गाँव और दोस्तों तक सीमित नहीं हैं बल्कि उसमें बुजुर्ग डाकिया है, सेवानिवृत रमावतार शास्त्री हैं, सैकड़ों साल पुरानी खाट है, पुरानी किताबों को नवजीवन देने वाला जिल्दसाज़ भी है (जो आज विलुप्त होने कगार पर हैं)।
“समय की मार खाया हुआ चेहरा लिये अपना घर बार छोड़ आया था/ उसने हमारे यहां पचासों जर्जर किताबों को जीवन दिया!/ पत्नी और एक छोटे बच्चे को साथ लिये बंगाल के किसी गांव से निकल आया था सुबंधु!
× × × दिन बीतते जाते थे और जिल्दसाज़ के चेहरे पर निराशा बढ़ती जाती थी जिल्दसाज़ी के लिए और किताबें नहीं मिल रही थीं गांव में x x x एक सर्द शाम को जब सबके घरों के दरवाजे बंद हो रहे थे और कोहरा घना हो रहा था/ सुबंधु आया बोला: दादा काम नहीं मिल रहा / कोई दूसरा काम भी तो नहीं आता/ अपने देश लौट जाना होगा दादा! × × × सुबंधु चला जाएगा!! यह बात फांस की तरह थी हमारी संवेदना में/ जैसे मन के दीपक में तेल कम हो रहा था और एक रात में हरा जंगल जैसे खाली ठूंठ रह गया था उसके जाने की बात सुनकर”
विनय सौरभ आदिवासी इलाके संथाल परगना से आते हैं लेकिन उनकी कविताओं में आदिवासी स्वर मुखर नहीं हैं। संभवतः आदिवासी समाज से गहरी संबद्धता नहीं होने कारण ऐसा हो। जल-जंगल-जमीन की लूट को बचाने या इस कार्यवाही के विरुद्ध कोई सशक्त प्रतिरोध उनकी कविताएँ नहीं रचती हैं।हालाँकि ‘आदिवासी कंसर्न’ उनकी कविताओं से अछूता नहीं है, वह कई जगह आता है-
“जिन हरे भरे पहाड़ों के नीचे हमने साल का पहला दिन गुज़ारा
बदरंग और अजीब शक्लों का बना दिया उसे पहाड़चोरों ने”
पूँजीपतियों को लाभ पहुंचाते हुए आज की सरकारें ‘आत्मनिर्भरता का राग’ भी अलाप ले रही हैं। जबकि विदित है कि पूँजीवाद का सीधा हमला हमारी आत्मनिर्भरता पर हुआ है। इस हमले में कुटीर उद्योग पूरी तरह नष्ट हो गए, छोटे-छोटे व्यापार की गुंजाइश समाप्त कर दी गयी। मशीनों ने उन्हें सस्ते मज़दूरों में तब्दील कर दिया, दस्तकारों को महानगर की झुग्गी बस्तियों की ओर पलायन के लिए मजबूर कर दिया।इन्हीं दस्तकारों-शिल्पकारों पर कोरोना जैसी महामारी में दोहरी मार पड़ी है। कृत्रिम विकल्पों के कारण हम प्रकृति प्रदत संसाधनों से बनी वस्तुओं से दूर होने लगे। इस बात की टीस विनय सौरभ को बेचैन कर देती है।
“आह! कितने समर्थ और अराजक तरीके से प्लास्टिक हमारे जीवन में आ गया देखेते-देखते/ x x x आपने गौर किया है, ताड़ के पंखे कितने हल्के होते हैं और कितने सस्ते!/ हवा और पत्ता!/ इस तरह से देखिए तो इन चीजों के प्रति एक रागात्मक भाव मन में पैदा होगा”
आत्मनिर्भरता कोई यान्त्रिक परियोजना नहीं है,वह सांस्कृतिक और सामुदायिक आवश्यकता है।आत्मनिर्भरता को बढ़ावा ‘लॉकल के लिए वॉकल’ जैसी तुकबंदीयों या जुमलों से नहीं मिलेगा बल्कि इस दिशा में जरूरी जमीनी योजनाओं को लागू करने से होगा।यह समाज के सांस्कृतिक स्वरूप के शिनाख्त से ही सम्भव है।अन्यथा विनय सौरभ जैसे कवि अपनी कविता में ‘लोकेल’ को खत्म किये जाने की पीड़ा व्यक्त करते रहेंगे-
मेरे पूर्वजों ने/ जिन्होंने ताड़ के हजारों पेड़ लगाए/ क्या सोचा होगा कभी/ कि एक दिन उन्हीं का खून/ इधर -उधर भटकेगा/ वह भी ताड़ के पंखों के लिए!!”
दिनेश कबीर – ‘साभार मुक्तिपथ फेसबुक‘