आज का साहित्य और उसका चिंतन नई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण पहले के साहित्य और उसके चिंतन से कई मायनों में बदल गया है। चिंतन की जगह सूचनाएं इनके औज़ार हैं। नई पीढ़ी बदले हुए सामाजिक समूहों को आधार बनाकर नया साहित्य रच रही है जो तकनीक के बदले नए आयामों को शामिल करते हुए भाषा और नई शब्दावलियों की चमक लिए नए तेवर के साथ सामने आता है। आज संचार के माध्यमों के विकास के बाद पाठकों की साहित्य पर निर्भरता घटी है। परन्तु यह भी सत्य है कि अच्छी रचनाएं आज भी लिखी और पढ़ी जा रही हैं।
साहित्य रचना संवेदनाओं और आतंरिक उद्वेगों की निर्झर बहती निर्मल नदी की यात्रा के समान है। जब तक नदी अपनी स्वछंद गति से रास्ते में आये हुए अवयवों को सिंचित करके बहती हुई मुहाने की तरफ बढ़ती रहती है तब तक प्रकृति अपने सौम्य और सुभाषिनी आकार में प्रतीत होती रहती है। इसकी स्थावरता इसके विनाश का उद्घोष करता है एवं यह निर्देशित करता है कि इसकी सफाई समय रहते की जाए। साहित्य भी अगर युवा पीढ़ी को अनदेखा कर देगा तो इसके विकास के रास्ते लगातार अवरुद्ध होते जाएँगे। आज पूरा विश्व भारत की तरफ मुँह बाए खड़ा है ताकि भारत के डेमोग्राफिक डिविडेंड का लाभ उठा सके और इसका लाभ केवल विज्ञान, तकनीक, कृषि,व्यापार,रोज़गार,अनुसंधान क्षेत्र के लिए ही सीमित नहीं है, बल्कि साहित्य के ढेरों विधाएँ मसलन गीत, संगीत, नाटक ,नृत्य ,पुस्तक लेखन के तौर पे भी देखा जा रहा है। युवा लेखन में इतना ओजश्व होना चाहिए कि पुरातन की जमी काई और वर्तमान की गंदगी को साफ़ कर सके।
दो दशक पहले पढ़ने से ज्यादा सुगम्य साधन कोई और नहीं था। चंदामामा, नंदन, चम्पक, बालहंस, नन्हें सम्राट , कॉमिक्स हमारे ज्ञानवर्धन और मनोरंजन तथा अतिरेक आनंद के साधन थे , किन्तु अब हम बिना पठन-पाठन के ही आनंदित और आलोकित होना चाहते हैं। जितने भी बड़े रचनाकार हुए हैं उनमें से अधिकतर की साहित्य रुचि घर के बड़े-बुजुर्ग के कारण ही पैदा हुई। परिवार के बड़े-बुजुर्ग के सान्निध्य में किस्से-कहानियाँ सुनना हमारे बाल्य काल के अवचेतन मन पर बहुत ही गहरा छाप छोड़ती थी। उससे उनमें एक साहित्यिक संस्कार पैदा होता था और बहुत हद तक वो एक संवेदनशील मनुष्य बनते थे। बचपन के साहित्यिक संस्कार के कारण ही पहले विभिन्न पेशों से जुड़े लोगों का साहित्य से ताउम्र रिश्ता बना रहता था। तकनीकी विकास ने पाठकों से उनके पढ़ने की आदत को बुरी तरह प्रवाभित किया है। ज्ञान को सूचना में अवमूल्यित कर देने का सबसे विहंगम असर किताबों पर पड़ा है। किताबों की तुलना में ये सूचनाएं दूसरे तकनीकी माध्यमों से कहीं भी और कभी भी प्राप्त की जा सकती हैं. साहित्यिक किताबों को केवक ज्ञानोपार्जन से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है. उनके प्रति अनुराग के पीछे एक खास तरह की अस्तित्वगत बाध्यता और मानसिक जरूरत भी होती है। इन माध्यमों के असीमित विस्तार और उपस्थिति ने किताबों के साथ हमारी दोस्ती को ख़त्म नहीं की, तो बहुत कमजोर तो अवश्य ही कर दिया है।
सोशल मीडिया की उपयोगिता मात्रा इस तथ्य से शंका के घेरे में नहीं लाया जा सकता कि इसने परम्परागत साहित्य के साधनों जैसे कि किताबों को विकृत किया है. सोशल मीडिया ने अपने बिना भेद-भाव के स्वरुप के चलते हर उस लेखक, चिंतक एवं विचारक को एक नया आयाम दिया है जिसके माध्यम से आज वो हर मुद्दे पर प्रखर रूप से लिख रहे हैं एवं इसी क्रम में एक ऐसे समाज की रचना भी कर रहे है जहाँ आदमी पहले से ज्यादा सशक्त हुआ है एवं सरकारें उत्तरदायी। हालाँकि उत्तर-सत्य काल में जहाँ फेक न्यूज़ जैसी सुरसा ने साहित्य की संभावनाओं और सामर्थ्य पर प्रश्न उठया है लेकिन दूसरी तरफ इसने कई गुमनाम रचनाकारों को जुबां और पहचान दोनों ही दी है। साहित्य भाषा अकादमी सन 2011 से शुरू की गई युवा साहित्य पुरूस्कार इसी बात का द्योतक है की युवा साहित्यकारों की लेखनी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है । सोशल मिडिया के सहयोग से आज लेखक उन पाठकों तक पहुँच रहे हैं जहाँ कुछ समय पहले तक यह एक सपना लगता था। प्रकाशन कंपनियों की एकक्षत्रराज की वजह से कई अच्छे लेखकों को भी उभरने के मौका नहीं मिलता था। सोशल मीडिया की वजह से पाठकों की रचनाओं को ऑन लाइन पढ़कर एवं त्वरित प्रत्युत्तर की वजह से दूसरे लोगों को भी लिखने की प्रेरणा मिल रही है एवं वो साहित्य के करीब आ रहे हैं. युवा लेखक बड़ी बेबाकी से सामाजिक परिवर्तनों जैसे की ट्रांसजेंडर की समस्या , विकलांगता की बाधाओं पर बेहतरीन रचनाएँ पाठकों के समक्ष इसलिए भी ला पा रहे हैं क्योंकि सोशल मीडिया की वजह से उनके ज्ञान का क्षितिज बढ़ा है और वो बेहतर सोच पा रहे हैं। 2017 में प्रकाशित मृणाल पांडेय का उपन्यास डार्क हॉर्स-एक अनकही दास्ताँ जो की दिल्ली में सिविल सेवा में जुटे विद्यार्थियों के बाइबिल के तौर पर उभरी है तो इस में बहुत बड़ा हाथ सोशल मिडिया का भी है. फेसबुक, ट्विट्टर ,व्हाट्सएप्प,स्नैपचैट के माध्यम से पाठको की रूचि जानेकर और फिर बाज़ार की नब्ज़ पकड़ कर लिखने से साहित्यकार को घाटा एवं विस्थापन का दोहरा वार आज नहीं झेलना पड़ता है। लेखकों की सामग्री की उपलब्धता भी लेखकों के सफल होने की बहुत बड़ी वजह रही है। आज युवा लेखक अमेज़न , स्नैपडील ,फ्लिपकार्ट के जरिये अपनी किताब का प्रचार एवं बिक्री नियंत्रित कर सकते हैं एवं त्वरित राय से किताब की कमियों को सुधार भी सकते हैं। इसी दिशा में स्पिक मकय,रेख़्ता,साहित्य आजतक, माइक्रो ब्लॉग्गिंग ,कई अख़बारों के द्वारा संचालित इ-लेखन जैसे की अमर उजाला का काव्य डेस्क सशक्त माध्यम बनकर कर उभरे हैं।
यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम दुनिया के महत्वपूर्ण देशों की कतार में सोशल मीडिया इस्तेमाल में तीसरे स्थान पर हैं, ये एक बड़ी उपलब्धि ही मानी जाएगी। हमारा युवा वर्ग आज सक्षम और तकनीकी के विकास ने उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर दिया है. किसी भी भौतिक आविष्कार की उपयोगिता उसके उपयोग करने वाले पर निर्भर करती है। अगर युवा साहित्यकार अच्छी रचनाएं गढ़ कर सोशल मिडिया के जरिये ही अपना मुकाम बना रहे हैं तो यह बहुत ही लाभकारी परिवर्तन है, लेकिन अगर सोशल मिडिया का इस्तेमाल साहित्यिक वस्तु के जरिए समाज की नब्ज़ काटने के लिए किया जा रहा है तो यह एक बेहद खतरनाक संकेत है।सोशल मीडिया आज जीवन का अभिन्न अंग बन गया है और इस बात को ठुकराया नहीं जा सकता है। अतः निजी एवं सामाजिक लाभ हेतु युवा लेखकों की अपनी जिम्मेदारी लेते हुए सृजनकारी साहित्य लेखन हेतु कदम बढ़ाना चाहिए और समाज को साहित्य के नए चेहरे जो कि सोशल मीडिया की वनिस्पत सामने आया है, उससे रूबरू भी कराना चाहिए।
सलिल सरोज