एक प्रकार से देखा जाए तो वर्तमान में में तथ्यों की बाढ़ सी आ गई है l कारण भी है, सभी शारीरिक क्षमताएं शिथिल हो गई है और मानवीय मस्तिष्क अधिक गणात्मक हो गया है l किंतु गणना से परे यह विषय मनोवैज्ञानिक भी है, अतः इस मनोवैज्ञानिक आधार पर भी सोच लेना उपयुक्त होगा l
यूं तो प्रारंभ से ही मनुष्य को मनुष्य स्वभाव पढ़ाया जाता है या कहे उसे समाज पढ़ाया जाता है, जहां वह स्वयं एक इकाई है और दूसरी तरफ मनुष्य समुदाय अर्थात समाज l इस अध्ययन का सकारात्मक दृष्टिकोण यह
रहा होगा की वह बिना भेदभाव मनुष्य कर्मों का सही विश्लेषण कर सके l नकारात्मक प्रभाव यही है कि वह मात्र दूसरों पर प्रश्न चिन्ह लगा सके l
विद्यार्थी जीवन एक महत्वपूर्ण जीवन है l जिसका प्रभाव शेष जीवन पर रहता है l इस आयु के अध्ययन में आदर्श, भेदभाव आदि विषयों को पढ़ा गया l किंतु मात्र इसे विषय के दृष्टिकोण से पढ़ा गया l कभी-कभी इन रंग, रूप, जाति, धन आदि भेदों और इनके आदर्शों को गंभीरता से भी पढ़ा गया l इसका अध्ययन निरंतर वर्षों तक किया गया l इन भेदों की खाई के अध्ययन की बारंबारता से मस्तिष्क को स्वीकार करवा दिया गया कि यही सत्य है l और यह सत्य स्थिति निर्बाध रूप से चलती रहेगी l जबकि कुछ लोगों ने इस खाई को पाटने का प्रयास का संकल्प भी लिया होगा l किंतु अथक प्रयासों के बावजूद भी मनुष्य इस भेद को खत्म नहीं कर पाया किंतु प्रकृति समर्थ है l
प्रकृति ने एक पल में समस्त भेद मिटा दिए l मानव स्वयं ही कर्तव्य बोध से दबा आ रहा है कि “ मैं प्रकृति को संतुलित कर दूंगा” या “असंतुलन की खाई को पाट दूंगा l” यह व्यर्थ अहम है कि “मैं प्रकृति के प्रति कर्तव्य रखता हूं”, इसका टूटना भी जरूरी था l एक तो शब्द “मैं” अर्थात अहम का जन्म l जो सर्वथा गलत है l दूसरा “प्रकृति के प्रति कर्तव्य रखने का भाव”, स्वयं को प्रकृति से पृथक कर लेना है l भाव तो मात्र एक ही होना चाहिए, कि मनुष्य हर जीव की भांति प्रकृति का हिस्सा है l और प्रकृति अपने को संतुलित करने में स्वयं समर्थ है l चाहे प्राकृतिक संतुलन हो ,चाहे मानसिक संतुलन l मानसिक असंतुलन वह है, जहां मनुष्य स्वयं को धन, ज्ञान और शक्ति के आधार पर दूसरे मनुष्य से बड़ा करने का व्यर्थ प्रयास करता है l जबकि वह इस सत्य को भी जानता है कि वह सृष्टि पर मेहमान है l और मेहमानों को वस्तु संग्रहण का अधिकार नहीं है l वह अनंत भोग सकता है, किंतु संग्रहण उचित नहीं है l
यह व्यर्थ अप्राकृतिक संग्रह असंतुलन का कारण है l आज प्रत्येक मनुष्य प्रकृति के सम्मुख समान नजर आ रहा है l उपरोक्त यह मान्यता प्रदान करता है कि मनुष्य को प्रकृति के प्रति कर्तव्य से मुक्त किया गया है, इस आधार पर कि प्रकृति स्वयं समर्थ है l किंतु मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह प्रकृति की हानि ना करें l कहने का तात्पर्य है की प्रकृति मनुष्य से वृक्षारोपण करने या जल देने की अपेक्षा नहीं करती है किंतु पेड़ काटने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाती है l प्रकृति वायु और जल के शुद्धिकरण की अपेक्षा नहीं रखती है, किंतु वह चाहती है कि इनको अशुद्ध ना किया जाए l प्रकृति पर्वत के दोहन की अपेक्षा नहीं रखती है l अर्थात मनुष्य प्रकृति को संरक्षण देने हेतु नहीं बल्कि वह स्वयं प्रकृति के संरक्षण में है l लेकिन उसका यह अधिकार नहीं है कि वह प्रकृति को हानि पहुंचाए l जब वह अपने अनाधिकृत अधिकार का प्रयोग कर रहा है यह अनेक आपदाएं उसका ही परिणाम है l और प्रकृति वर्तमान की तरह बार-बार इन प्राकृतिक और मानसिक असंतुलन की खाई को खत्म करने का प्रयास करेगी l
उपरोक्त संपूर्ण विश्लेषण वर्तमान परिस्थिति की गंभीरता को अत्यधिक उजागर करने हेतु ही है l वर्तमान की सकारात्मकता यह है कि मनुष्य में आज एक अद्भुत उत्साह है, एक संगठन है, एक त्याग है l किंतु सत्य यह भी है, कि यह लंबी अवधि तक कार्य नहीं कर सकता है l एक समय ऐसा हो सकता है या भूतकाल में हुआ भी है, भूख संघर्ष और हिंसा का कारण बन जाती है l पाशविकता जन्म लेने लगती है l यह दू: सपने की तरह है l ऐसी परिस्थिति का सामना ना हो इसलिए हमें अपने अधिकारों के दुरुपयोग को रोकना होगा l संपूर्ण पृथ्वी पर बंधुत्व की भावना से कार्य करना होगा l किसी भी जाति या धर्म के स्थान पर मनुष्य जाति की पहचान मस्तिष्क पटल पर धारण करनी होगी l क्योंकि पूर्ण समुदाय में हम मनुष्य जाति हैं l
हम सभी एक ही सागर में यात्रा कर रहे हैं l उसके उत्थान हेतु आवश्यक है कि हम असंतुलन उत्पन्न ना करें l पृथ्वी मातृत्व का विषय है l यह तो मात्र रेखाएं है जो तथाकथित शब्द देश बनाती हैं l अतः स्वयं को प्रकृति का हिस्सा माने और स्वयं की हानि ना करें l
आगामी दो पंक्तियों में एक महत्वपूर्ण संतुलन शामिल है…………
मैं और वह जहां उतरा वह सागर ही था
वो जिस कश्ती में था उसका मुसाफिर मैं भी था
पूजा आर. झिरीवाल
चार्टर्ड अकाउंटेन्ट
अलवर राजस्थान
सारगर्भित लेख आपका पूजा जी। सत्य कहा आपने मनुष्य और प्रकृति अलग-अलग नहीं हैं बल्कि मनुष्य प्रकृति का एक अंग हैं । वहीं निस्संदेह यह बात भी उचित प्रतीत होती हैं कि प्रकृति को मनुष्य द्वारा संरक्षण किये जाने की आवश्यकता नहीं हैं बल्कि मनुष्य स्वयं प्रकृति के संरक्षण में हैं। मनुष्य भौतिक प्रगति की चाह में प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों का एक बड़े स्तर पर दोहन कर रहा है जिसका दुष्परिणाम यह निकलता समय समय पर मानव जाति को विभिन्न प्रकार की जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है।