टूटने का दर्द झेला नहीं था मैंने,
बस सुना था।
कुछ लोग कहा करते थे,
आदमी आखिर टूट ही जाता है,
भीष्म प्रतिज्ञा भले ही ले लें,
फिर भी टूट ही जाता है।।
मैं सोचता था,
टूटते होंगे लोग,
मुझे क्या लेना,किसी के टूटने से
पर जब मैं टूटा खुद के वादे से,
अपनी कल्पनाओं से,
अपनी भावनाओं से,
सोचा ये क्या है!
फिर खड़े हो लेंगे।।
जिजीविषा मनुष्य का स्वभाव है,
पर कथनी-करनी का फर्क महसूस किया मैंने,
आसान है कहना पर करना मुश्किल।।
आज देखता हूं,
लोग रोज टूट रहे हैं
अपने किए वादों से,
अपनी उम्मीदों से
घर-परिवार से,
रोजगार से,
जीवन की नाउम्मीदी से,
उन्हें कुछ उम्मीद ही नहीं है,
इस व्यवस्था से,
अपने हुक्मरानों से।
जब मैं देखता हूं हजारों-हजार मीलों तक,
पैदल आते कारवां को,
तो मुझे आशा की किरण दिख रही है।।
हमारे हौसले पस्त नहीं है,
बस बेचारगी है,
अभी हमारे मजदूरों ने,
किसानों ने हिम्मत नहीं छोड़ी है,
इसी ने हमेशा हौसले दिए हैं।
देश को, समाज को,संसार को।।
जब ये पस्त नहीं हैं,
तो हम क्यों टूटें,
फिर से खड़ा होने का जी कर रहा है,
इन्हीं के हौसलों से।।
बृजेश शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहबाद