साहित्य और कला से बेहतर कोई वस्तु नहीं, जिसके द्वारा मनुष्य के ह्रदय में चेतना जगाकर उसे सही दिशा और दशा प्रदान करने में सक्षम बना सकें| साहित्य संवेदना और संस्कारों का निर्माण करता है| साहित्य एवं भाषा का व्यक्तित्व विकास में महत्वपूर्ण योगदान है| डॉ. विजयदत्त ने कहा कि- “व्यक्तित्व निर्माण में संस्कार और संस्कार निर्माण में साहित्य तथा साहित्य संरचना में भाषा की अनन्य भूमिका रहती है|” तभी तो साहित्य संवेदना और संस्कारों का निर्माण एवं परिष्कार करता है|
मनुष्य के विचारों की अभिव्यक्ति का एक प्रमुख माध्यम साहित्य है| यह अपने ज्ञान के अमृत से समाज एवं संस्कृति दोनों को सापेक्ष दिशा देने का कार्य करता है| इस सन्दर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि– “साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है|” जनता की इसी चित्तवृत्ति को दिखाने में यशपाल और उनके समकालीन लेखक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवतीचरण वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव आदि रचनाकारों ने अपनी-अपनी कृतियों के माध्यम से ऐसे पात्रों की रचना की, जिसमें मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास परिस्थितिजन्य बदलावों के आधर पर दिखाने का प्रयास किया है|
व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के समस्त मिश्रित गुणों का वह प्रतिरूप है, जो उसकी विशेषताओं के कारण उसे अन्य व्यक्तियों से भिन्न इकाई के रूप में स्थापित करता है| मनोवैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्तित्व के स्वरूप को दो रूपों में व्यक्त किया गया है| अंतर्मुखी और बहिर्मुखी| यशपाल की कृति ‘दिव्या’ उपन्यास में दिव्या का व्यक्तित्व बहिर्मुखी होता है|
आधुनिक हिंदी उपन्यास साहित्य में यशपाल का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है| उनके उपन्यास ‘दिव्या’, ‘झूठा-सच’, ‘अमिता’ जैसे उपन्यास हिंदी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं| ‘दिव्या’ और ‘अमिता’ उनके बहुचर्चित उपन्यास हैं, जिनमें बौद्धकालीन परिवेश की पृष्ठभूमि के आधार पर उपन्यास के कथानक बुने गए हैं| इस दृष्टि से ‘दिव्या’ विशेष रूप से उल्लेखनीय उपन्यास है|
यशपाल ने ‘दिव्या’ उपन्यास में दिव्या के व्यक्तित्व को बहिर्मुखी स्वरूप में व्यक्त करते हुए कहा है कि दिव्या स्वभाव से विद्रोही है तथा उसमें ममत्व का भाव भी है| वैसे भी किसी व्यक्ति का पूरा स्वभाव और चरित्र ही व्यक्तित्व कहलाता है| कोई व्यक्ति कैसा आचरण करता है? विभिन्न परिस्थितोयों के अनुरूप कैसा व्यवहार करता है? ये सब उसके व्यक्तित्व के अंग हैं| यह काफी कुछ उसकी मानसिक संरचना पर निर्भर करता है| जो इस उपन्यास में दिव्या के सन्दर्भ में देखा जा सकता है|
दिव्या सागल की एक अभिजात्य कन्या है, जिसे शुद्र कुल में उत्पन्न वीर पृथुसेन से प्रेम हो जाता है| परन्तु दिव्या एक संपन्न ब्राह्मण महापंडित धर्मस्थ की प्रपौत्री थी| उसके लिए स्वतंत्रता का मतलब केवल इतना ही था की वह अपने पितामह के घर में आराम से रह सके| परन्तु यह स्वतंत्रता नहीं थी कि वह अपने भविष्य का निर्णय ले सके| उसे पृथुसेन से प्रेम था, लेकिन उसके घरवाले इसके विरूद्ध थे, क्योंकि वह एक दासपुत्र था| समाज की विडम्बना यह है कि वह अपने से नीचे कुल के साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं करना चाहता है| वह रीतिरिवाज, संस्कार, परिवार की बदनामी के नाम पर विवाह रोक देता है| परन्तु दिव्या अपने विद्रोही स्वभाव के कारण इसके आगे झुकती नहीं है| वह स्वयं अपने मार्ग का चुनाव करती है, उसके लिए उसका अस्तित्व, उसकी गरिमा महत्वपूर्ण होती है|
उसकी स्वतंत्रता के मार्ग में हर मोड़ पर उसके शत्रु घात लगाए पहरेदार के रूप में बैठे मिलते हैं| परिस्थितियों के अनुरूप बीसवीं सदी के चालीस के दशक में महादेवी वर्मा की एक पंक्ति मुझे इसके सन्दर्भ में याद आ रही है:-
“पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
घेर ले छाया अमा बन
आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन
और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहाँ
शत विद्युतों में दीप खेला
अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे”
पृथुसेन के युद्ध पर जाने से पहले दिव्या स्वयं को पूर्णरूपेण उसे समर्पित कर देती है| जिसके परिणामस्वरूप वह गर्भवती हो जाती है, परन्तु पृथुसेन से उसका विवाह नहीं हो पता| यहीं से उसके जीवन का समय बदलता है| उसके जीवन में कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं और उसके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन होता है|
पृथुसेन को यह बात वह नहीं बता पाती और मज़बूरी में घर छोड़ देती है, जिसके पश्चात कभी वह दासी की तरह बिक जाती है तो कभी नर्तकी बन अपना जीवनयापन करती है, परन्तु वह जीवन से हार नहीं मानती| उपन्यास में जब उसे दासी के रूप में स्वामिनी के पुत्र को स्तनपान कराने के लिए रखा जाता है, तब वहां उसके ममत्व की चरमावस्था को देखा जा सकता है- “परन्तु वह संतोष न पा सकी| शीघ्र ही उसकी अनुभूति बदल गयी| स्वामिनी की आज्ञा थी- पहले स्वामिनी के पुत्र को स्तनपान कराएं, फिर अपने पुत्र को| वह आज्ञा शूल की भाँति उसके ह्रदय को बेध गई, परंतु आज्ञापालन के अतिरिक्त उसके पास कोई उपाय न था| द्विजपुत्र को स्तनपान कराने के पश्चात् उसके पुत्र शाकुल के लिए दूध शेष नहीं रहता| अपनी संतान को क्षुधित देख उसका ह्रदय रो उठता है| वह द्विजपत्नी की दृष्टि की ओट से अपनी संतान को स्तनपान कराने का अवसर खोजती रहती है, वह अपने ही दूध की चोरी करने लगी|” जिसके कारण उसकी ममता पर चोरी का आघात लगा| यह सजा कितनी भयंकर हो सकती है एक माँ होने के नाते स्वयं दिव्या ही उसे जानती है| अपने पुत्र के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण न कर पाने और अपने ऊपर चोरी के इलज़ाम से तंग आकर वह यमुना नदी में कूद जाती है, जिसमें उसके पुत्र की मौत हो जाती है और वह बच जाती है|
कालांतर में दिव्या नर्तकी बन जाती है और उसके व्यक्तित्व निर्माण की गति बढ़ती ही जाती है, वह महादेवी की ही जैसे इन पंक्तियों को साकार करती है:-
“बाँध क्या लेंगे तुझे यूँ मोम के बंधन सजीले”
आगे चलकर दिव्या एक सुविख्यात नर्तकी अंशुमाला के रूप में जानी जाती है| जिसका सभी विरोध करते हैं, क्योंकि वैश्य के आसन पर बैठ वर्णाश्रम अपमानित होता है| अमान्य रुध्रधीर, बौद्धभिक्षु, पृथुसेन और दार्शनिक सभी दिव्या को महादेवी का पद देना चाहते हैं, परन्तु दिव्या उसे ठुकरा देती है- “ज्ञानी आचार्य कुलवधू का सम्मान, कुल माता का आदर तथा कुल महादेवी का अधिकार आर्य पुरुष का प्रश्रय मात्र है| वह नारी का सम्मान नहीं, उसका भोग करने वाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है- दासीहीन होकर भी आत्मनिर्भर रहेगी, सत्वहीन होकर वह जीवित नहीं रहेगी|”
बहुत सारे पुरुष उसके शरीर के साथ खेलने की कोशिश करते हैं| लेकिन जब पता चलता है कि अंशुमाला सिर्फ कला प्रदर्शन करती है, वह अपना शरीर नहीं बेचती| उस समय स्वयं दिव्या सोचती है- “नारी भोग्य है, वह भोग के लिए ही पैदा हुई है| अतः वेश्या ही स्वतन्त्र नारी है|”
आचार्य रुध्रधीर, भिक्षु पृथुसेन और मूर्तिकार मारिश ये तीनों दिव्या को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं और अपनी-अपनी दृष्टि से कुछ कहते हैं| लेकिन दिव्या अंततः मारिश को ही आत्मसमर्पण करना चाहती है| क्योंकि वह उसको उसे अपने सुख-दुःख का साथी बनाना चाहता है- “मारीश देवी को राजप्रासाद में महादेवी का आसन अर्पण नहीं कर सकता| मारीश देवी को निर्वाण के मिथ्या चिरंतन सुख का आश्वासन नहीं दे सकता, वह संसार के सुख-दुःख का अनुभव करता है| अनुभूति और विचार ही उसकी शक्ति है| उस अनुभूति का ही आदान-प्रदान वह देवी से कर सकता है| वह संसार से धूलधूसरित मार्ग का पथिक है | उस मार्ग पर देवी के नारीत्व की कामना में वह अपना पुरुषत्व अर्पण करता है| वह आश्रय का आदान-प्रदान चाहता है| वह नश्वर जीवन में संतोष की अनुभूति दे सकता है|”
दिव्या का व्यक्तित्व व्यवस्था के पूरे घिनौनेपन को उजागर करते हैं| उसके स्वार्थ के लिए व्यवस्था के ठेकेदार किस प्रकार अपने घोषित सिद्धांतों और मान्यताओं को एक ओर रख देते हैं
इस प्रकार से दिव्या अपने व्यक्तित्व के माध्यम से समाज की प्रताड़ित नारियों के प्रति पाठकों के ह्रदय में सहानुभूति निर्माण करने में कामयाब हुई है| नारी की दासता और पीड़ा उस युग में भी थीं और इस युग में भी बरकरार हैं| आज भी दिव्या जैसी पात्र वर्त्तमान में अपनी वेदना और पीड़ा को झेल रही हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है|
सरस्वती कुमारी, शोधार्थी, हिंदी विभाग,
हैदराबाद विश्वविद्यालय